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________________ १४२ अनुसन्धान- ७० से यह ख्याति अख्याति भी नहीं । और अन्यत्र सत् का अत्रत्य सत् में असत् संसर्ग का भान भी स्वीकृत न होने से असत्संसर्गख्याति से भी यह भिन्न है । इस ख्याति में तो भ्रमज्ञान में एक सत्ं का अन्य सत् के रूप में होने वाला अन्यथा या विपरीत दर्शन मान्य होने से यह अन्यथाख्याति या विपरीतख्याति के नाम से पहचानी जाती है । विपरीतख्याति के खण्डन में निम्नोक्त तर्क दिये जाते हैं। १. भ्रमज्ञान का आलम्बन क्या है रजत या शुक्ति ? | यदि शुक्ति को उसका आलम्बन माने तो उसका ग्रहण रजताकार से क्यों होता है उसका स्पष्टीकरण अशक्य हो जाता है । यतः जो वस्तु जिस रूप से ज्ञान में प्रतिभासित हो उसी रूप को उस वस्तु का आकार समझना चाहिए । आलम्बन का आकार अन्य हो और अन्य आकार से उसका प्रतिभास भी हो ऐसा मानने पर तो किसी भी ज्ञान से किसी भी चीज का आकार तय नहीं हो पाएगा, क्यों कि तब तो हर ज्ञान में भासित आकार के विषय में शङ्का हो सकती है । प्रश्न तो यह भी है कि शुक्तिस्थल में शुक्ति को ही आलम्बन बनाने वाले ज्ञान को भ्रम ही क्यों गिना जाय ? । - २. यदि भ्रमज्ञान रजत को आलम्बन बनाता है तो शुक्तिदेश में असद्भूत रजत को विषय बनाने वाला ज्ञान असत्ख्याति ही हुआ । यदि रजत का उस देश-काल में असत्त्व होने पर भी, भिन्न देश-काल में उसका सत्त्व होने से असत्ख्याति न होगी, तो प्रश्न होगा कि उस चक्षु से असन्निकृष्ट रजत का इदन्त्वेन चाक्षुषप्रत्यक्ष क्यों हो रहा है ? । यदि हम मान ले कि शुक्ति, जो इदन्त्वेन चाक्षुष प्रत्यक्ष का विषय है, उसमें, असन्निकृष्ट रजत का मिथ्या आरोप होता है; तो वहाँ जैसे रजत असन्निकृष्ट है वैसे समूचे विश्व के सारे पदार्थ असन्निकृष्ट हैं, उनका भान क्यों नहीं होता ? ३. 'इदं रजतम्' यह ज्ञान प्रत्यक्षात्मक होने से उसे स्मृति की अपेक्षा ही नहीं होती । तो उसमें स्मृतिस्थ पदार्थ का अवभासन कैसे हो सकता है ?
SR No.520571
Book TitleAnusandhan 2016 09 SrNo 70
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShilchandrasuri
PublisherKalikal Sarvagya Shri Hemchandracharya Navam Janmashatabdi Smruti Sanskar Shikshannidhi Ahmedabad
Publication Year2016
Total Pages170
LanguageSanskrit, Prakrit
ClassificationMagazine, India_Anusandhan, & India
File Size11 MB
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