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जुलाई-२०१६
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इन समस्याओं का प्रभाचन्द्राचार्य ने 'न्यायकुमुदचन्द्र' में इस तरह समाधान दिया है -
असत्ख्याति में एकान्तेन असत् पदार्थ का प्रथन माना गया है, जब कि अन्यथाख्याति में भासित पदार्थ का अन्यत्र सत्त्व स्वीकृत है यह दोनों में महद् अन्तर है। ___असन्निकृष्ट रजत का दोषवशात् सन्निकृष्ट रूप में प्रत्यक्ष होना ही अन्यथाख्याति (जो रूप पदार्थ का नहीं है उस रूप में बोध) है, तो इसमें आपत्ति क्या ? और असन्निकृष्ट का ग्रहण मानने पर भी, सन्निकृष्ट में निहित सादृश्यादि से उबुद्ध स्मरण के विषयभूत पदार्थ का ही प्रत्यक्ष स्वीकारने से, विश्व के सभी पदार्थों के प्रत्यक्ष की आपत्ति भी नहीं आती ।
और स्मरण में परिस्फुरण जिसका हो रहा है उसी का बहिर्भान स्वीकारने पर भी, उस पदार्थ को सर्वथा ज्ञानरूप न मानकर उसकी अन्यत्र स्वतन्त्र सत्ता स्वीकारने से, आत्मख्याति का भी भय नहीं है।
वस्तुतः हम जैन दार्शनिक भ्रमात्मक 'इदं रजतम्' ज्ञान को प्रत्यक्षात्मक नहि, अपितु प्रत्यभिज्ञात्मक मानते हैं । उस ज्ञान में 'इदम्' अंश में दृश्यमान और 'रजतम्' अंश में दृष्ट का सङ्कलन होने से ‘स एवाऽयं देवदत्तः' इस ज्ञान की तरह वह प्रत्यभिज्ञा ही है। और वह प्रत्यभिज्ञात्मक होने से ही उसे दर्शन व स्मरण दोनों ज्ञानों की अपेक्षा रहती है, अन्यथा केवल प्रत्यक्षज्ञान में स्मरण की अपेक्षा नहीं होती । प्रभाकर ने भ्रमस्थान में दर्शन और स्मरण का मिथ्या एकीभाव माना है, जब कि यहाँ दर्शन
और स्मरण दोनों से जन्य एक स्वतन्त्र प्रत्यभिज्ञात्मक ज्ञान का स्वीकार है, यही स्मृतिप्रमोष और प्रत्यभिज्ञात्मक अन्यथाख्याति में अन्तर है ।
__उस भ्रमात्मक ज्ञान में जिसका अपना आकार निगूढ हो चुका है और रजताकार जिसने धारण किया है ऐसी शुक्ति ही आलम्बनभूत है । ज्ञान
* नैयायिक व जैनों की अन्यथाख्याति में यह एक सूक्ष्म अन्तर है । ऐसी और भी भिन्नता है जिसका जिक्र आगे किया गया है।