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जुलाई - २०१६
सावद्य जोग परिहरीइ, सुध साधु-धरम रंगि वरी ।
एक दिन जो चारित्र पालइ सोइ सिव- सुख त्वरित निहालइ ॥१५२॥
दीउ दान सीअल नित पालु, निज मानव-भव अजूआलु । तप तपीइ बार प्रकारिं, भावना भव- दुक्ख निवारइ ॥ १५३॥ इति सुणी उपदेस सोभागी, ठाकरसी होइ वइरागी । संवेग-रंग बहू आया, जय जंपदं नमू तस पाया ॥ १५४ ॥ इति गुरु-उपदेसनी ढाल ||७||
हा ॥ राग वइराडी ॥
दुक्ख - दावानल भय-करु, भव-काननई अपार । भंमइ जीव तिहां एकलु, कर्म-वसि पड्यु गमार ॥१५५॥
निश्चयइ सही ए जीवनई, पुण्य निं पाप सखाइ । पर-भवि हींडइ एकलु, बंधव केडि न जाइ ॥१५६॥ जे दुख भव-संबंधियां, सुख जे मुगति-निवास । जीव एकेलो भोगवई, स्वजनतणी कुण आस ॥१५७॥
॥ ढाल ॥
ठाकरकुंअर वइरागीओ, निज चितनई समझावइ रे । ए संसार असार पदारथ, अथिरपणि चित भावइ रे,
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ठाकर कुंअर वइरागियो || १५८ || आंचली ॥
जन्म-जरा-दुःख- पार न लहीइ, एह संसार किलेसो रे । राग-मरण-भय साथइं वहीइं, जिहां सुख नहीं लव- लेसो रे । ठाक० ॥१५९॥
खड्ग-पंजर माहिं जीव रमंतो, चतुरंग चमूं परवरीयो रे ।
रंकतणी परि ताणी लीज़इ, ज्यम किंकरि कर धरियो रे । ठाक० ॥ १६०॥