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अनुसन्धान-७०
लेकिन जब कोई भी दर्शन खुद की अपूर्णता को नजरअन्दाज करके स्वयं को परिपूर्ण और एकमात्र सत्य समझने लगता है, और अन्य सभी के प्रति निम्नता का भाव धारण करता है तो वह अपने आप परम भ्रम हो जाता है। सम्यग् ज्ञान तो सभी दर्शनों में निहित सत्यांशों का आकलन करके उन सब का सुचारु रूप से समन्वय करने से, व अन्य सभी मिथ्या अभिनिवेशों का निरसन करने से ही मिल सकता है । सक्षेप में कहा जाय तो जैन मत के अनुसार सभी दर्शनों की अपेक्षाओं को ध्यान में रखते हुए अनेकान्तरूप से तत्त्वनिर्णय करना ही सम्यग् ज्ञान है, जब कि किसी एक मान्यता के आग्रहवश होने वाला अपूर्ण तत्त्वबोध यानी एकान्तवाद ही मिथ्याज्ञान या . परम भ्रम है, जो मोक्षमार्ग पर प्रगति का मुख्य प्रतिरोधक तत्त्व है ।
दूसरा भ्रम है व्यावहारिक भ्रम । भ्रान्ति के रूप में इस व्यावहारिक भ्रम का ही प्रमाणशास्त्रों में मुख्यतया विवेचन होता है, और यहाँ भी उसी का विवेचन अभिमत है । दार्शनिकों में इस भ्रम के अस्तित्व को लेकर ऐकमत्य है, और लोकव्यवहार में शुक्तिका में रजतज्ञान, मरुमरीचिका में जलज्ञान जैसे जितने ज्ञानों को भ्रम गिना जाता है, उन सभी ज्ञानों का व्यावहारिक भ्रम के रूप में स्वीकार करने में भी किसी को कोई आपत्ति नहीं । ____ यद्यपि मीमांसक प्रभाकर के 'सभी ज्ञान यथार्थ ही होते हैं' और तत्त्वोपप्लवसिंहकार भट्ट जयराशि के 'व्यभिचारी ज्ञान का अस्तित्व ही नहीं' इस मतलब के निरूपण को देखते हुए 'वे दोनों व्यावहारिक भ्रम का अस्वीकार कर रहे हैं' ऐसा आपाततः प्रतीत हो सकता है । लेकिन उन्होंने उपर्युक्त मिथ्याज्ञानों की उत्पत्ति की जो प्रक्रियाएं प्रदर्शित की है, उसे देखकर मालूम होता है कि उन दोनों ने अपनी-अपनी मान्यता को बचाए रखने के लिए ही, भ्रम का 'भ्रम' रूप में स्वीकार न करके, शब्दान्तर से उसे स्वीकृति दी है । मूलतत्त्व तो वही है यह आगे स्पष्ट किया जाएगा ।
___ दर्शनों में जो विवाद देखा जाता है वह इन भ्रमात्मक ज्ञानों की उत्पत्ति को लेकर है । जैसे कि शुक्ति में 'इदं रजतम्' ज्ञान को ले, तो