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________________ जुलाई-२०१६ ११९ परम भ्रम का सभी दार्शनिकों द्वारा निरूपण होने के बावजूद भी इसकी कोई एक निश्चित व्याख्या करना कठिन है । क्यों कि प्रत्येक दर्शन की दृष्टि में उसका स्वरूप विभिन्न होने के कारण उसका कोई एक लक्षण बन ही नहीं पाता । ___कहने का मतलब यह है कि सभी दार्शनिकों ने अपनी अपनी दृष्टिरुचि के मुताबिक तत्त्व की विवेचना की है । अतः आपस-आपस में तत्त्वनिरूपणों का सङ्घर्ष होना बिल्कुल स्वाभाविक है । और सभी दार्शनिक खुद के निरूपण को ही सच मानते हैं । हर दार्शनिक की सोच में दूसरा कुछ भी गलत ही होगा । सो प्रत्येक दर्शन की निगाह में खुद की तत्त्वविवेचना का बोध 'सम्यगज्ञान' कहलायेगा, जब कि दूसरों की तत्त्वविवेचना 'परम भ्रम' गिनी जायेगी । . उदाहरण के तौर पर देखे तो नैयायिकादि कहते हैं कि द्रव्य-गुण आदि का भेदज्ञान ही तत्त्वज्ञान है, तब इसके विरुद्ध अद्वैतवादी का कहना है कि उस भेदज्ञान से बढकर दूसरा कोई मिथ्याज्ञान नहीं । इस तरह यह परम भ्रम प्रस्थानभेद से नाना स्वरूपवाला हो जाता है, और कहीं मिथ्यात्व, कहीं अविद्या, कहीं वासना इत्यादि अभिधानों से पहचाना जाता है । सभी दार्शनिकों ने इस मिथ्याज्ञान के नाश से 'मोक्ष' होना स्वीकार किया है । इस परम भ्रम के विषय में जैन दर्शन का मन्तव्य सब से अलग है । यद्यपि उसके मत में भी ऐसे परम भ्रम का अस्तित्व है ही, और वह भी ऐसे मिथ्याज्ञान के धारक को मिथ्यात्वी ही कहता है । इतना ही नहीं, उसके मतानुसार ऐसे मिथ्याज्ञान के निरास के बिना मोक्षपथ पर प्रगति की कोई गुंजाईश भी नहीं । तथापि दूसरे दार्शनिकों के परम भ्रम से जैन दर्शन सम्मत परम भ्रम में महद् अन्तर है । जब अन्य सभी दर्शन खुद से भिन्न दर्शन की तत्त्वविभावना को मिथ्याज्ञान गिनते हैं, तब जैन दर्शन उनकी, 'हमारे अलावा दूसरों का तत्त्वनिरूपण गलत है' ऐसी सोच को 'परम भ्रम' समझता है । चूँकि वह सत्यनिष्ठ, तत्त्वान्वेषी व समन्वयशील है, अतः उसे अन्य सभी दर्शनों में सत्य की आंशिक सत्ता स्वीकृत है ।
SR No.520571
Book TitleAnusandhan 2016 09 SrNo 70
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShilchandrasuri
PublisherKalikal Sarvagya Shri Hemchandracharya Navam Janmashatabdi Smruti Sanskar Shikshannidhi Ahmedabad
Publication Year2016
Total Pages170
LanguageSanskrit, Prakrit
ClassificationMagazine, India_Anusandhan, & India
File Size11 MB
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