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जुलाई- २०१६
यहाँ ज्ञान का विषयभूत पदार्थ व्यवहार में शुक्तिरूप में परिगणित शुक्ति ही है, रजत नहीं, उसमें (दोषवशात्) होनेवाला रजत का बोध गलत है; पश्चाद्भावी शुक्ति के सम्यग्ज्ञान से बाधित होने वाला वह बोध भ्रम गिना जाता है इन सभी बातों को लेकर दार्शनिकों में ऐकमत्य होने पर भी, 'ऐसा क्युं होता है ?' इस विषय में एकमत्य नहीं है । सभी दर्शन अपनी तत्त्वविभावना बाधित न हो इसी तरह प्रत्यक्षाभास की विवेचना प्रदर्शित करते हैं ।
सभी दार्शनिकों के सामने मुख्य प्रश्न यही है कि शुक्तिका में रजतप्रत्यय की उत्पत्ति का निमित्त क्या है ? जो उपस्थित है उसका ज्ञान नहीं और जिस के साथ नेत्र का कोई संसर्ग नहीं उसका ज्ञान ऐसा क्यों ? दोष किस का प्रमाता का ? इन्द्रिय का ? विषय का ? या फिर और किसी का ? इन दोषों की मीमांसा के समय सभी दार्शनिक दो विभागों में विभक्त हो जाते हैं । बाह्य पदार्थों की सत्ता जिन्हें स्वीकृत है उनके सामने यह प्रश्न है कि ज्ञान अर्थानुसारी हो तो फिर शुक्ति का अनुसरण न करके वह रजतावसायी कैसे बना ? जब कि अद्वैतवादियों, शून्यवादियों इत्यादि के समक्ष यह प्रश्न है कि शुक्ति और रजत इन दोनों का अस्तित्व न होते हुए भी वहां रजत क्यों दिखाई देता है ? । और शुक्ति में शुक्ति का ज्ञान, अभ्रान्त और रजत का ज्ञान भ्रान्त क्यों ? । जब कि अर्थाभाव दोनों स्थिति में समान है फिर भ्रान्ताभ्रान्त विवेक कैसे ?
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“आत्मख्यातिरसत्ख्यातिरख्यातिः ख्यातिरन्यथा । तथाऽनिर्वचनख्यातिरित्येतत् ख्यातिपञ्चकम् ॥
योगाचारा माध्यमिकास्तथा मीमांसका अपि । नैयायिका मायिनश्च पञ्च ख्यातीः क्रमाज्जगुः ॥ "
इन प्रश्नों के निराकरणस्वरूप विविध दार्शनिकों द्वारा सूचित भ्रमोत्पत्ति की प्रक्रियाएं 'ख्याति' कहलाती हैं । प्रमाणशास्त्र में ज्यादातर पाँच ख्यातियाँ प्रसिद्ध हैं