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अनुसन्धान-७०
६. साङ्ख्य सम्मत प्रसिद्धार्थख्याति
सत्कार्यवादी साङ्ख्यों के मत में किसी वस्तु का कहीं भी अभाव नहीं है। उनका कहना है कि वस्तु सर्वथा असत् हो तो आकाशकुसुमवत् वह प्रतिभास का विषय बन ही नहीं सकती । ज्ञान में जब और जहाँ अर्थ प्रतिभासित होता है तब और वहाँ वह अर्थ प्रमाणप्रसिद्ध ही है । अतः भ्रमस्थल में प्रसिद्ध अर्थ की ही ख्याति होने से वह 'प्रसिद्धार्थख्याति' है।
सत्कार्यवाद में अर्थों का उत्पाद-विनाश सम्भवित ही नहीं है । अर्थों का केवल व्यक्तीकरण-अव्यक्तीकरण होता रहता है । अर्थों के व्यक्तीभाव के दौरान हम उनको सत् समझते हैं, और अव्यक्तीभाव के समय उनका अभाव मान लेते हैं । लेकिन यह हमारी स्थूल व्यवहार दृष्टि है । वस्तु तो सर्वदा सर्वत्र सत् ही होती है - यह परमसत्य है । ___ भ्रमकाल में भी पुरोवर्ती स्थल में रजत् सत् और व्यक्त ही होता है और तभी हम उसका ग्रहण कर पाते हैं । परन्तु बाद में कारणवशात् उसके अव्यक्त हो जाने पर, व्यवहार में उसकी अनुपलब्धि होने से, हम पूर्वज्ञान को भ्रम समझ लेते हैं । और जहा पश्चात्काल में भी अर्थ व्यक्त ही रहता है वहाँ व्यवहार में उसकी उपलब्धि होने से, हम पूर्वज्ञान को अभ्रान्त समझते हैं । वस्तुतः दोनों ज्ञान अभ्रान्त ही होते हैं । विद्युत् आदि क्षणिक पदार्थ की तरह उत्तरकाल में रजत की उपलब्धि न होने पर भी, ज्ञानकाल में उसका अस्तित्व सिद्ध ही है। अन्यथा विद्युदादि के ज्ञानों को भी भ्रम मानना होगा ।
सत्कार्यवादियों की इस प्रसिद्धार्थख्याति के समक्ष निम्नोक्त समस्याएँ प्रस्तुत की जाती है -
१. पानी के सूख जाने के बाद भी, उसकी पूर्वकालीन सत्ता के सूचक भूमि की स्निग्धता आदि चिह्न उपलब्ध होते ही हैं । पानी का विद्युत् की तरह शीघ्र और निरन्वय विनाश सम्भवित ही नहीं । तो मरुमरीचिका में जल का जो भ्रमात्मक ज्ञान होता है, वहाँ पश्चात्काल में