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जुलाई - २०१६
रजतम्' इस ज्ञान में प्रतिभास होता है । यहाँ शुक्ति भी सत् है, रजतत्व भी सत् है । पर उन दोनों में जिस समवाय सम्बन्ध का अध्यास है, वह अलीक होने से यह 'असत्संसर्गख्याति' ( अलीक सम्बन्ध की ज्ञप्ति) गिनी जाती है । कितनेक आचार्यों का कहना है कि रजत तादात्म्य सम्बन्ध से रजत में रहता है, लेकिन असत् तादात्म्य के ग्रह से वह शुक्तिस्थल में भी प्रतिभासित होता है । यह भी अन्य प्रकार की असत्संसर्गख्याति ही है । इस तरह अलीक संसर्ग के ग्रहण से होने वाली अन्य असत्संसर्गख्यातियों का भी निरूपण मिलता है ।
रजत देशान्तर में तो सत् ही है और पुरोवर्ती अन्य सत् पदार्थ में उसका प्रतिभास हो रहा है यह बात अन्यथाख्याति और असत्संसर्गख्याति में समान ही है । फर्क सिर्फ इतना है कि असत्संसर्गख्याति में सत् के. उपराग से 'असत् सम्बन्ध का भान स्वीकृत है, जब कि अन्यथाख्याति अनुसार एक सत् दूसरे सत् के रूप में प्रतिभासित होता है ।
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असत् का प्रत्यक्षभान सम्भव नहीं, असत् कहीं सम्बद्ध नहीं हो सकता इत्यादि तर्क इस ख्याति के विरुद्ध दिए जाते हैं । वैसे भी संसर्ग को अलीक मानने पर, जिस चीज का उस संसर्ग से आभास हो रहा है उसकी पुरोवर्ती पदार्थ में सत्ता भी स्वीकृत करनी ही पडती है । उस सत्ता को सत्य समझने पर संत्ख्याति से, और अलीक समझने पर असत्ख्याति से इस ख्याति का कोई भेद ही नहीं रहता ।
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अब भ्रम के विषयभूत बाह्य पदार्थ की सत्ता जिनको सम्मत है ऐसे दार्शनिकों की ख्यातियाँ देखे । बाह्यार्थवादियों में दो पक्ष हैं । एक मत से ज्ञान में अविद्यमान का प्रतिभास हो यह सम्भवित ही नहीं । अतः सर्वत्र सर्व की सत्ता होती ही है और उस सत् का ही ग्रहण ज्ञानमात्र में होता है । इसलिए ज्ञानमात्र परमार्थतः अभ्रान्त ही होता है । कुछ ज्ञानों में जो भ्रान्तता का व्यवहार होता है वह स्थूल लोकव्यवहार से ही होता है । उस भ्रान्तता का व्यवहार किस तरह सम्भवित है यह दर्शाने वाली ख्यातियाँ