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अनुसन्धान- ७०
(२) आचार्य कुन्दकुन्द की अमर कृतियाँ समयसार, नियमसार, पञ्चास्तिकायसार, प्रवचनसार आदि की अमृतचन्द्र के पूर्व तक टीका की बात तो अलग, किसी भी आचार्य ने उनका निर्देश तक क्यों नहीं किया ? | यदि वे उनके पक्षधर होते तो उनका निर्देश करते या उन पर टीका लिखते । और यदि उनके मन्तव्यों के विरोधी होते तो उनका खण्डन करते । किन्तु ईसा की आठवीं नवीं शती तक न तो उन कृतियों का कहीं कोई निर्देश मिलता है और न उन पर टीका ही लिखी गई है । यहाँ तक कि उनका नामस्मरण भी कोई नहीं करता है । जब कि अनेक पूर्व आचार्यों का नामनिर्देश आदरपूर्वक किया गया है ।
(३) मर्करा अभिलेख (शक सं. ३८८) जिसके आधार पर कुन्दकुन्द को ईसा की चौथी शती का भी माना जाता है, वह जाली है, प्रामाणिक नहीं है । प्रथमतः न केवल इतिहासविदों ने, अपितु स्वयं दिगम्बर विद्वानों ने भी उसे जाली लिखा है । ईसा की पाँचवी, छठीं शती के पूर्व के सभी अभिलेख प्राकृत भाषा और ब्राह्मी लिपि के मिलते है, जब कि यह अभिलेख संस्कृत भाषा और देवनागरी लिपि में है ।
(४) कुन्दकुन्द ने जो सुत्तपाहुड गाथा २२ - २३ में स्त्रीमुक्ति का निषेध किया है, उसका निर्देश आठवीं शती के पूर्ववर्ती किसी भी श्वेताम्बर या दिगम्बर मान्य ग्रन्थ में नहीं मिलता है । नवीं शताब्दी में दिगम्बर आचार्य वीरस्वामी मात्र उसका समर्थन करते हुए षट्खण्डागम के प्रथम खण्ड के ९३ वें सूत्र की धवलाटीका में कहते हैं कि यहाँ मनुष्यनी का तात्पर्यभाव स्त्री है, जब कि आठवीं शती में श्वेताम्बर आचार्य हरिभद्र ने स्त्रीमुक्ति का निर्देश कर उस सम्बन्ध में यापनीय मान्यता का समर्थन किया है, जो अचेलकता की समर्थक होकर भी स्त्रीमुक्ति और केवलीभुक्ति की संपोषक रही है ।
(५) प्रो. रतनचन्द्रजी भी अपने ग्रन्थ 'जैन परम्परा और यापनीय सङ्घ' में कुन्दकुन्द के अनुल्लेख से सम्बन्धी इस प्रश्न का सीधा उत्तर न देकर मात्र विस्मृति का तर्क देकर छुट्टी पा लेते हैं । जबकि छठीं, सातवीं