________________
जुलाई-२०१६
१५३
'विषमव्याख्याकाव्यानि'मां संस्कृत प्रहेलिका (कोयडा) छे । संस्कृत भाषानी सन्धि अने समासनी खूबीओनो उपयोग करीने कोयडा सर्जवामां आव्या छे । संस्कृतना अभ्यासीओने बौद्धिक कसरत करावे एवी रचनाओ छ । टिप्पणोथी उकेलमां मदद मळे छे । संशोधक मुनिश्रीए केटलाक उकेल शोधी आप्या छे । २९ मा श्लोकनो जे उकेल सूचव्यो छे ते साचो नथी । गौः + ईपदं एम सन्धि छूटी पाडतां कर्ता 'गौः' मळे छे । हजी अमुक प्रहेलिकाना उत्तर शोधवाना बाकी रहे छ ।
अक्षयचन्द्र वाचक पर प्रेषित लेखपत्र विद्वान मुनिओना उच्च बौद्धिक व्यायामनो नमूनो छे । आ वाचक नागोरी वड तपगच्छ (-पार्श्वचन्द्र गच्छ) ना हता ।
सकलचन्द्र गणिनी एक म. गु. रचना अहीं प्रथम वार प्रकाशित थई छ । क. १० मां 'स्यालीजई' छे त्यां 'स्या लीजई' एम छूटुं वांचq जोईए । क. १२ मां 'छपायु' छे त्यां 'पोताने केम छुपावी शकाय' एवो अर्थ छे, 'संताइने' नहीं । क. २९ मां 'पांतरिउ' नो अर्थ “भिन्न पडतुं', 'जुदी जातनुं' एवो थाय छे ।
__उदयसागरजी कृत 'थूलिभद्रचन्द्रायणा' मां शृङ्गाररस, पोषण कविए मुक्तहस्ते कयुं छे, अन्ते वैराग्यमां पर्यवज्ञान कयुं छे । संशोधक मुनिवरे नोध्युं छे के जै. गू. क, मां चन्द्रावला-चन्द्रायणा प्रकारनी एक ज कृति नोंधाई छ । परन्तु एम नथी; त्यां अलग अलग विषयना शीर्षक नीचे बेचार चन्द्रावला नोंधाया छे । जो के चन्द्रावला प्रकारनी कृतिओ ओछी छे ए वात साची छे । श्री जयंत कोठारीए जयवंतसूरि कृत स्थूलिभद्र चन्द्रावलां सम्पादित करीने फार्बस त्रैमासिकमां प्रगट करावेलां ! । चन्द्राउलामां प्रेम-शृङ्गार-विरह जेवा भाव व्यक्त थता, तेथी धर्म/भक्तिनी अभिव्यक्ति माटे एनुं माध्यम लेवानुं अनुकूल न बने । प्रेम-शृङ्गारनो विषय जेमां आवतो होय एवा प्रसंगो लईने त्याग/विरागनी प्रेरणा आपी शकाय त्यां ए माध्यम काम आवे । अने आवा विषयनी मावजत करवी अघरी छे, आथी चन्द्राउला प्रकारनी रचनाओ अत्यल्प प्रमाणमां थई छे एम कहेवामां वांधो नथी । प्रस्तुत रचनामांना केटलाक शब्दो :