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अनुसन्धान-७०
जैन दार्शनिकों का कहना है कि ज्ञानों के विशेषणांश में भी . प्रामाण्येतर-व्यवस्था प्रायशः सङ्कीर्ण होती है । उदाहरणार्थ, इन्द्रियदोषजन्य चन्द्रद्वयदर्शन में सङ्ख्यांश के विषय में भ्रान्ति होने पर भी, चन्द्र के स्वरूपांश में तो वह सम्यग्ज्ञान ही है । उसी तरह एकचन्द्रदर्शन, जिसे हम प्रमा गिनते हैं वह भी, सङ्ख्यांश व स्वरूपांश में भले ही सम्यग् हो, चन्द्र को जितनी दूरी पर हम समझते हैं उससे वास्तव में बहुत ज्यादा दूरी पर होने से, उस अंश में तो वह भी मिथ्या है । इसलिए परमार्थतः तो कोई भी ऐन्द्रियक प्रत्यक्ष न तो केवल मिथ्या होता है, न तो केवल भ्रान्त ।
प्रश्न होता है कि सभी ऐन्द्रियक प्रत्यक्षों में यदि प्रामाण्य और अप्रामाण्य - दोनों संवलितरूप में होते हैं, तो भ्रान्ताभ्रान्त-विवेक कैसे सिद्ध होगा ? स्याद्वादियों का कहना है कि ज्ञानगत संवाद या विसंवाद के प्रकर्ष-अपकर्ष की अपेक्षा से ज्ञानों में प्रामाण्य या अप्रामाण्य का व्यवहार होता है । जैसे कस्तूरिकादि द्रव्यों में स्पर्शादिगुणों की अपेक्षा गन्धगुण की मात्रा उत्कट होने से वह गन्धद्रव्य कहा जाता है, वैसे ही जिस ज्ञान में संवाद की अपेक्षा विसंवाद की मात्रा अधिक हो उसे भ्रान्त व अप्रमाण गिना जाता है, जब कि संवाद के आधिक्य से व्यवहार में ज्ञान को प्रमाण समझा जाता है । इस तरह भ्रमज्ञान भी किसी अंश में सद्भूत का और किसी अंश में असद्भूत का ग्राहक होने से, सदसत्ख्याति ही सिद्ध होती है ।
ख्यातिवाद का यह निरूपण यहाँ समाप्त होता है । प्रमाण-ग्रंथो में इससे अतिरिक्त बहुत कुछ इस बारे में लिखा गया है व और भी लिखा जा सकता है । लेकिन सारल्य व सक्षेप, जो कि इस लेखश्रेणी के प्रमुख उद्देश हैं, उनकी रक्षा हेतु, वह यहाँ नहीं लिखा गया । लेखक की अपनी क्षमता की मर्यादा भी इसमें कारणभूत है । जिज्ञासुओं से प्रमाणग्रन्थों में अनेकशः चर्चित ख्यातिवाद देखने का अनुरोध है ।