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जुलाई-२०१६
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जैन दृष्टि से ज्ञानोत्पत्ति में आत्मा की मुख्यता है । अतः उसके अनुसार प्रमाता का ही दोष भ्रम का निमित्त है । प्रमाता में विकृति उत्पन्न करने में विषयादि गत दोष भले ही सहायक हो, मुख्य कार्य तो प्रमाता के पूर्वसञ्चित कर्मों के विपाक का ही होता है । ___अद्वैतवादियों ने कर्मविपाक की जगह अविद्या का अभ्युपगम किया है।
भ्रमज्ञान की उत्पत्ति के बाद जब तक उसका बाधकज्ञान नहीं होता तब तक वह निर्दोष ही गिना जाता है । और पुरुष उसे प्रमाण मानकर ही प्रवृत्त होता है । बाधकज्ञान से ही उसके मिथ्यात्व की प्रतीति होती है । ____ नव्यनैयायिकों ने स्पष्टता की है कि भ्रमज्ञान भी विशेष्य अंश में तो अभ्रान्त ही होता है । उदाहरणार्थ, 'इदं रजतम्' ज्ञान में, अभिमुख स्थित पदार्थ (शुक्ति) कि जो विशेष्यभूत है, उसका ही 'इदम्'रूप में यथार्थ संवेदन होने से, विशेष्य-अंश में तो उस ज्ञान को 'भ्रम' कहा नहीं जा सकता । उस ज्ञान की भ्रान्ति रजतत्वरूप विशेषण-अंश में ही है । नैयायिकों ने यहाँ एक ही ज्ञान को भ्रान्तभ्रान्त-उभयस्वरूप गिनकर स्याद्वाद का ही अभ्युपगम किया है, यह ध्यानपात्र बात है।
जैनों ने इससे भी आगे बढकर यह बताया है कि भ्रमज्ञान भी न केवल विशेष्यांश में, अपितु "मुझे 'इदं रजतम्' यह ज्ञान हुआ" ऐसे स्व-परप्रकाश प्रत्यय में, अथवा नैयायिकादि सम्मत अनुव्यवसायादि में, 'मझे' - प्रमातअंश, 'इदम्' - विशेष्यांश और 'यह ज्ञान' - प्रमितिअंश - इन तीनों अंशो में वह अभ्रान्त ही होता है । क्यों कि ज्ञान हुआ है, मुझे हुआ है और पुरोवर्ती पदार्थ को आलम्बन बनाकर हुआ है - इन तीनों बातों में तो वह मिथ्या नहीं ही है । उसका मिथ्यात्व केवल 'रजतम्' यह विशेषणांश में ही सीमित है ।
* जैन मत में कोई भी ज्ञान स्व-परप्रकाश न हो यह सम्भव नहीं ।