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अनुसन्धान- ७०
नैयायिकों ने शुक्तिदेश में रजत की कथञ्चित् सत्ता स्वीकृत नहीं की है । उनके मत से तो वहाँ रजत का सर्वथा असत्त्व ही है । इस अंश में नैयायिक व भाट्ट और जैनों में मतभेद होने पर भी, पुरःस्थ शुक्ति ही अन्यत्र स्वरूपेण सत् रजत के रूप में प्रतिभासित होती है इस अंश में उन तीनों के विचार समान होने से तीनों की ख्यातियाँ अन्यथाख्याति या विपरीतख्याति गिनी जाती है । नागेश भट्ट की सदसत्ख्याति नैयायिकों की अन्यथाख्याति से मिलतीझूलती ही है, और विज्ञानभिक्षु की सदसत्ख्याति व असत्संसर्गख्याति में नामभेद मात्र है, बाकी सब समान ही लगता है ।
किसी दार्शनिक ने भ्रमज्ञान को निर्दोष नहीं माना है । अतः सभी दार्शनिकों ने अपनी अपनी दृष्टि से दोषों की मीमांसा की है ।
नैयायिक-वैशेषिकों के मत से विपर्ययज्ञान में दोष द्रष्टा का या उसके साधन का होता है, अर्थ का कभी नहीं । जैसे इन्द्रिय से प्रथम मरीचिका का निर्विकल्प प्रत्यक्ष होने पर, जब सविकल्पज्ञान का अवसर आता है, तब मरीचिकागत जलसादृश्य के दर्शन से उपहत चक्षु अपना कार्य ठीक तरह से कर नहीं पाती और मरीचिका में जल का विपर्यय हो जाता है । इसमें दोष देखनेवाले का, उसके मन का या इन्द्रिय का हो सकता है । लेकिन ज्ञान की विषयभूत मरीचिका का क्या दोष ? | अगर वह दूषित होती, तो उसके सभी द्रष्टा को एकसमान विपर्यय होना चाहिए था, सो तो होता नहीं । इससे विरुद्ध, मीमांसा में द्रष्टा या साधन के ज्यों विषय का भी दोष गिनाया गया है। उनका कहना है कि विपर्यय उत्पन्न करने में अर्थगत सादृश्य, सौक्ष्म्य आदि का भी हिस्सा होता है ।
बोद्धों के मत से ऐन्द्रियक प्रत्यक्ष में इन्द्रिय की मुख्यता होने से मिथ्याप्रत्यय में उसीका दोष मुख्य होता है । अन्य जितने भी दोष हो वे सभी मिलकर इन्द्रिय को ही विकृत करते हैं ।