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जुलाई-२०१६
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सम्भवित नही हैं । तो उन क्रियाओं की कारक चीज को हम 'असत्' कैसे समझे ? । ___और भी बहुत सारे तर्क असत्ख्याति के विरुद्ध हो सकते हैं । शून्यवाद के खण्डन में की गई तमाम दलीलें यहाँ भी लागू होती हैं, यतः शून्यवाद और असत्ख्याति एक ही तत्त्व के दो पहेलू हैं ।
सौत्रान्तिकों का मन्तव्य भी इस बारे में माध्यमिकों से मिलता-झुलता ही है। २. योगाचार सम्मत आत्मख्याति
विज्ञानवादी बौद्धों के मत से समूचे विश्व में एक ही तत्त्व परिस्फुरायमान है और वह है विज्ञान । उससे अतिरिक्त किसी बाह्य तत्त्व का अस्तित्व ही नहीं है। वह स्वयंप्रकाश है और ग्राह्य-ग्राहक भाव से रहित है । उस आन्तरतत्त्व स्वरूप विज्ञान के विविध आकार ही बाह्य पदार्थ के रूप में प्रतिभासित होते हैं । अत एव सविषयक ज्ञानमात्र भ्रान्त हैं, क्यों कि वे बाह्यरूप से आरोपित अन्तस्तत्त्व का साक्षात्कार करते हैं । चूँकि अनादि वासना के उद्बोधन से ही प्रतिभासों में वैचित्र्य सम्भवित है, अतः प्रतिभासभेद की सङ्गति के लिए भी बाह्य पदार्थों की सत्ता का स्वीकार आवश्यक नहीं ।
योगाचार की उक्त दृष्टि से देखा जाय तो सिर्फ शुक्ति में रजत का ज्ञान नहि, अपितु सभी बाह्यार्थविषयक ज्ञान परमार्थतः भ्रान्त ही होते हैं । वस्तुतः उन बाह्यार्थविषयक ज्ञानों में ज्ञान के अपने ही आकारों का बोध होता है, अतः वहाँ 'आत्मख्याति' (-स्वयं का बोध) गिनी जाती है ।
प्रश्न यह होता है कि विज्ञानवाद में भ्रान्ताभ्रान्त-विवेक कैसे होगा ? यदि सभी ऐन्द्रियक ज्ञान परमार्थतः भ्रान्त ही होंगे, तो शुक्ति में चाहे शुक्ति का ज्ञान हो चाहे रजत का ज्ञान हो, होंगे तो दोनों ही भ्रान्त ! फिर प्रमाअप्रमा की व्यवस्था कैसे बन पाएगी ? बाह्यरूप से आरोपित होने से भ्रान्त ज्ञानाकारों में सच-झूठ का विभागीकरण कैसे हो सकता है ? ।