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अनुसन्धान-७०
विज्ञानवादियों इसका उत्तर देते हुए बताते हैं कि व्यवहार में हमारी इन्द्रियों की जितनी शक्ति है उसके अनुसार ही, उसकी मर्यादा में रहकर ही, हम सभी अपने संवादि ज्ञानों को प्रमाणभूत मानकर प्रवृत्त होते हैं । जैसे दो दृष्टिरोगियों को परस्पर द्विचन्द्रदर्शन में संवाद होने से, उनको एकदूसरे की अपेक्षा से अपना-अपना ज्ञान अविसंवादी ही मालूम होता है; उसी प्रकार हम सभी पृथग्जनों की ऐन्द्रियक शक्तिमर्यादा करीब करीब एक सी होती है, अत एव एक हद तक, हम सभी, अपने कुछ ज्ञानों को भ्रान्त और कुछ को अभ्रान्त समझकर, अपना-अपना व्यवहार चलाते हैं । अतः पारमार्थिक दृष्टि से - वस्तुतः सभी ज्ञान भ्रान्त होने पर भी, दृश्य और प्राप्य के एकत्वारोप से होने वाले संवाद-विसंवाद के बल पर, व्यावहारिक स्तर पर हमारा काम चल जाता है । ___ सारांश यह है कि जितना भी वासना का कार्य है, चाहे वह संवादी हो या विसंवादी, वह सब वासनामूलक होने से परमार्थतः मिथ्या ही है । उन सभी प्रत्ययों में वासना से उबुद्ध ज्ञान के अपने आकारों की ही बाह्य अर्थों के रूप में प्रतीति होती है, अत: वहाँ 'आत्मख्याति' मानी जाती है । विज्ञान एकमात्र, शुद्ध और अविभाग होने से उसमें बाध्यबाधकभाव या भ्रान्ताभ्रान्त-विवेक सम्भवित ही नहीं । व्यावहारिक दृष्टि से जो विज्ञानाकार अपने पूर्वोत्तर विज्ञानाकारों से संवादी होता है, वह अविपरीतवासना-प्रबोधमूलक ज्ञानाकार अभ्रान्त समझा जाता है । और एक ज्ञानाकार के पश्चात् यदि उससे विपरीत विज्ञानाकार की उत्पादक वासना का प्रबोध होता है तो वह विज्ञानाकार विसंवादी होने से व्यावहारिक दृष्टि से भ्रान्त गिना जाता है । एवं वासनाप्रभूतत्व से प्रतिबद्ध मिथ्यात्व सभी विज्ञानाकारों में समान रूप में होने पर भी, विपरीत और अविपरीत वासनामूलकत्व के निर्धारण से व्यावहारिक दृष्टि में भ्रान्ताभ्रान्त-विवेक कर पाना सम्भव है ।
योगाचारसम्मत इस आत्मख्याति का अन्य दार्शनिकों द्वारा प्रबल खण्डन हुआ है । यह आत्मख्याति का सिद्धान्त पूर्णतः, बाह्य अर्थों के