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________________ १२७ जुलाई- २०१६ सर्वथा असत्त्व, एकमात्र अविभाज्य शुद्ध विज्ञान के अस्तित्व और वासना के उद्बोधन से होनेवाले विज्ञान के नानाकारत्व तन्नाम विज्ञानवाद पर आधारित है । और इस विज्ञानवाद का अन्य सभी दार्शनिकों द्वारा खण्डन होने पर, आत्मख्याति भी अपने आप खण्डित हो जाती है । बाह्य जगत् की वास्तविकी सत्ता और प्रामाणिकता स्वीकारने वाले दार्शनिकों के मत में, उसकी सिद्धि होने पर, आत्मख्याति खुद एक भ्रम हो जाती है । वैसे भी आन्तरतत्त्व स्वरूप विज्ञान के आकार का बाह्यरूप में ज्ञान होना वह एक तरह की अन्यथाख्याति ही कहलायेगी, आत्मख्याति नहीं । आत्मख्याति तो तब होती, जब ज्ञान खुद के आकार को, 'यह मैं हूं' या 'यह मेरा आकार है' इस रूप में ग्रहण करता । सो तो है नहीं, फिर उसे आत्मख्याति कैसे गिन सकते है ? | ज्ञान में जो सम्भवित ही नहीं वैसे छेद, भेद, दाह इत्यादि भावों का ज्ञानांकार के रूप में स्वीकार भी युक्तियुक्त नहीं । तदुपरांत, व्यावहारिक भ्रान्ताभ्रान्त - विवेक के लिए आवश्यक वासना के वैपरीत्य-अवैपरीत्य का भी नियामक तत्त्व भी विज्ञानवाद में सम्भवित नहीं । अतः उस में भ्रान्ताभ्रान्त-विवेक व बाध्यबाधकभाव के असम्भव की न्यूनता वैसी ही ही है । ३. ब्रह्माद्वैतवादी सम्मत अनिर्वचनीयख्याति ब्रह्माद्वैतवादियों का कहना है कि शुक्ति में रजतज्ञान का विषय जो रजत है वह सत् नहीं, क्योंकि वह सत् होता तो मिथ्या नहीं कहलाता । वह असत् भी नहीं, क्योंकि असत् से खपुष्प की तरह तद्विषयक ज्ञान या प्रवृत्ति ही सम्भवित नहीं । उक्त दोनों दोषों की आपत्ति होने से वह सदसद्रूप भी नहीं हो सकता । अतः ज्ञानप्रतिभासित उस रजत का सदसदादि किसी भी रूप से निर्वचन अशक्य होने से उसको अनिर्वचनीय ही मानना चाहिए । और उसके ज्ञान को 'अनिर्वचनीयख्याति' गिननी चाहिए |
SR No.520571
Book TitleAnusandhan 2016 09 SrNo 70
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShilchandrasuri
PublisherKalikal Sarvagya Shri Hemchandracharya Navam Janmashatabdi Smruti Sanskar Shikshannidhi Ahmedabad
Publication Year2016
Total Pages170
LanguageSanskrit, Prakrit
ClassificationMagazine, India_Anusandhan, & India
File Size11 MB
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