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________________ १२४ अनुसन्धान-७० जब वासना से विपरीतसंवादजनक असत्प्रकाशन होता है, तब हम उस असत्प्रकाशन को व्यावहारिक रूप में भ्रम गिनते हैं, अन्यथा सम्यक्संवाद-जनक असत्प्रकाशन व्यावहारिक सत्यता की कसौटी पर 'प्रमा' गिना जाता है । जब कि वास्तव में सभी मिथ्याज्ञान ही हैं । माध्यमिकों की इस असत्ख्याति के विरुद्ध अन्यथाख्याति के समर्थकों ने निम्नोक्त तर्क दिए हैं - १. ज्ञान में असत् का प्रतिभास हो ही नहीं सकता । असत् का मतलब ही यह होता है कि किसी भी प्रतीति का आलम्बन वह न बने । अन्यथा शशशृङ्ग का प्रतिभास भी क्यों नहीं होता ? शून्यवादियों के मत में तो शशशृङ्ग हो या शुक्तिका - दोनों समान रूप से असत् हैं । फिर एक का प्रतिभास हो सकता है और एक का नहि इसमें नियामक क्या ? । २. ज्ञान में प्रतिभासित होना ही अर्थों का सत्त्व गिना जाता है । अब यदि ज्ञान ही असत् का ग्राहक हो गया, तो प्रमाण के बल से प्रमेयव्यवस्था नहीं बन पाएगी । आखिर तो माध्यमिकों को भी शून्यवाद की सिद्धि किसी ज्ञान से ही करनी होगी । लेकिन जब ज्ञान भी असत् का ग्राहक हो सकता है, तब तो शून्यवाद भी किसी ज्ञान से सिद्ध नहीं हो सकता । - ३. ज्ञान जब असत् का ही ग्राहक है, तो भ्रान्तिगत वैचित्र्य ही उपपन्न नहीं हो सकता । सत् के स्वभाव में वैविध्य होने से तद्ग्राहक ज्ञान में भी विभिन्नता हो सकती है । असत् तो खुद ही निःस्वभाव है, तो उसके ग्रहण में वैचित्र्य कैसे ? । . ४. भ्रान्ति के विषयभूत पदार्थ से कोई अर्थक्रिया निष्पन्न नहीं होने की वजह से वह असत् है यह बात भी ठीक नहि । वहाँ विशिष्ट अर्थक्रिया सम्पन्न न होने पर भी सामान्य अर्थक्रियाएँ तो होती ही है । जैसे रजतरूपेण ज्ञात शुक्ति से रजत की विशिष्ट अर्थक्रियाएँ नहीं होगी, परन्तु अभिलाप, ग्रहण, मोचन आदि सामान्य अर्थक्रियाएँ तो वहाँ भी होती हैं । यह क्रियाएँ शशशृङ्गादि असत् पदार्थो में तो
SR No.520571
Book TitleAnusandhan 2016 09 SrNo 70
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShilchandrasuri
PublisherKalikal Sarvagya Shri Hemchandracharya Navam Janmashatabdi Smruti Sanskar Shikshannidhi Ahmedabad
Publication Year2016
Total Pages170
LanguageSanskrit, Prakrit
ClassificationMagazine, India_Anusandhan, & India
File Size11 MB
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