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जुलाई-२०१६
तुं त्रिभुवन-हित-कारणी, वर-दाइनी देवी । . पंच-अखर-मय तुझ सरूप, षट-दरशन-सेवी ॥१२॥ तुं तूठइ मानव बहू, हुआ वचन-विलास । वृद्धवादि सूरी जयो, कविता कालिदास ॥१३॥ बप्पभट्ट सूरीसरू, हेमसूरी विख्यात । सनमुख आवी तेहनइं, तूठी तूं मात ॥१४॥ बालक पुढिउं पालणि, सहू-लोक प्रसीध । तूं तुठी वर दीध तास, लघु पंडित कीध ॥१५॥ मूरख चट-नामई हूओ, मोटु दुरभागी । स्वामिनि तुझ प्रसायथी, तेहनी मति जागी ॥१६॥ सीता-नामई ब्राह्मणी, तीणिं तूं ध्याई । तुं तूठी माय तेहनइं, दीधी पंडिताई ॥१७॥ जिन-मुख-पंकज-वासिनी, माय तुं सपराणी । कर जोडी पाय नमू, दिजि अविरल-वाणि ॥१८॥ अष्ट-सिद्धि नव-निद्धि-रिद्धि, जस नामई लहीइ । सुरतरु-सुरमणि-सुरभि-कामघट-प्रापति कहीइ ।।१९।। श्रीकल्याणविजय गुरु, गुण-मणि-भंडार । तेहना गुण गायवा, मुझ हरख अपार ॥२०॥ द्वीप असंख्यमाहिं रां, नामई जंबूद्वीप । मेरु महीधर मध्य भागि, तेह तणइं समीप ॥२१।। वन अछइ मोटू सास्वतुं, तेह माहि विसुद्ध । जंबूवृक्ष जेणिं करी, जंबूद्वीप प्रसीद्ध ॥२२॥ मेरु थकी दक्षण दिसिं, लवणोदधि पासइं । भरतखेत्र भूतलि कह्यु, पुण्य-कर्म-निवास ॥२३।। तेह मध्य भू-भामिनी-तिलकोपम सोहइ । पलखडी-नामइं नयर भलुं, देखी मन मोहइ ॥२४॥