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जुलाई-२०१६
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उसी से षद्रव्यों की अवधारणा का विकास हुआ है । पञ्चास्तिकाय हैं - १. जीवास्तिकाय, २. पुद्गलास्तिकाय, ३. धर्मास्तिकाय, ४. अधर्मास्तिकाय और ५. आकाशस्तिकाय । जैनदर्शन में प्राचीन काल में लोक को पञ्चास्तिकायरूप माना गया था और कालक्रम में उसमें अनस्तिकाय के रूप में काल को जोड कर ही षद्रव्यों की अवधारणा बनी है ।
(३) प्रवचनसार - आचार्य कुन्दकुन्द के महत्त्वपूर्ण ग्रन्थों में प्रवचनसार का नाम आता है । यह ग्रन्थ भी मूलतः शौरसेनी प्राकृत में रचित है । आचार्य कुन्दकुन्द के ग्रन्थों पर अर्द्धमागधी एवं महाराष्ट्री प्राकृत का प्रभाव होने से उनकी भाषा को अजैन विद्वानों ने जैन शौरसेनी भी कहा है । अमृतचन्द्रजी कृत टीका में इसकी गाथासंख्या २७५ है, जबकि जयसेनाचार्य कृत टीका में इसकी गाथासंख्या ३११ है । कहानजी स्वामी ने भी अमृतचन्द्रजी का अनुसरण कर गाथासंख्या २७५ ही. मानी है । इसके प्रथम ज्ञानतत्त्व-प्रज्ञापन अधिकार के चार उप अधिकार है - १. शुद्धोपयोगाधिकार, २. ज्ञानाधिकार, ३. सुखाधिकार और ४. शुद्धपरिणामाधिकार । इसी प्रकार दूसरे ज्ञेयतत्त्व-प्रज्ञापन अधिकार को द्रव्य-सामान्य अधिकार और द्रव्य-विशेष अधिकार तथा ज्ञाता-ज्ञेय अधिकार ऐसे तीन भागों में विभाजित किया है । तीसरे चरणानुयोग चूलिका महाधिकार को भी चार अधिकारों में विभाजित किया गया है - १. आचरण प्रज्ञापनाधिकार, २. मोक्षमार्ग प्रज्ञापनाधिकार, ३. शुद्धोपयोग प्रज्ञापनाधिकार और ४. पञ्चरत्नाधिकार । सामान्यतया इस ग्रन्थ का प्रतिपाद्य मोक्षमार्ग ही है।
(४) नियमसार – यह शौरसेनी प्राकृत में रचित एक संक्षिप्त ग्रन्थ है । इसकी गाथासंख्या पद्मप्रभ के अनुसार १८७ है । इस पर अमृतचन्द्रजी और जयसेन की कोई टीकाएं नहीं है । पद्मप्रभ के अतिरिक्त इसकी अन्य टीकाएँ उपलब्ध नहीं होती है । इस ग्रन्थ का मूल विषय सम्यक्-दर्शन, सम्यक्-ज्ञान, सम्यक्-चारित्र एवं षद्रव्य ही हैं । जहाँ तक मेरी जानकारी हैं सामायिक आदि सम्बन्धी इसकी कुछ गाथाएं नन्दीसूत्र में