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अनुसन्धान-७०
संख्या ४१५ है, जब कि जयसेन की टीका में गाथासंख्या ४३६ है । यही स्थिति अन्य संस्करणों की भी है। जैसे - कहानजी स्वामी के संस्करण में ४१५ गाथाएँ है । इस ग्रन्थ में निश्चयदृष्टि और व्यवहारदृष्टि से आस्रव, पुण्य, पाप, बन्ध, संवर, निर्जरा और मोक्ष की अवस्थाओं का सुन्दर चित्रण है । वैदिक परम्परा में इसी प्रकार की दृष्टि को लेकर अष्टावक्रगीता नामक ग्रन्थ मिलता है । दोनो में आध्यात्मिक दृष्टि से बहुत समरूपता है । यह तो निश्चित है कि अष्टावक्र उपनिषदकालीन ऋषि है । अतः उनकी अष्टावक्रगीता से या उनकी आध्यात्मिक दृष्टि से कुन्दकुन्द के समयसार का प्रभावित होना भी पूर्णतः अमान्य नहीं किया जा सकता है । यद्यपि समयसार में निश्चयनय की प्रधानता के अनेक कथन हैं, किन्तु आचार्य कुन्दकुन्द ने कहीं भी व्यवहारनय की उपेक्षा नहीं की है। जब कि उनके टीकाकार अमृतचन्द्रजी ने व्यवहार की उपेक्षा कर निश्चय पर अधिक बल दिया है । अमृतचन्द्रजी की विशेषता यह है कि वे अपनी पतंग की डोर को जैनदर्शन के खूटे से बांधकर अपनी पतंग वेदान्त के आकाश में उडाते हैं । कुन्दकुन्द ने अनेक स्थलों पर श्वेताम्बरमान्य आगमों का आश्रय लिया है । जैसे गाथा संख्या १५ का अर्थ श्वेताम्बर आगम आचाराङ्ग के आधार पर ही ठीक बैठता है । कहानजी स्वामी के संस्करण में तो पाठ ही बदल दिया है। "अपदेस सुत्तमज्झं" के स्थान पर "अपदेस संत मज्झं" कर दिया है और उसका मूल अर्थ भी बदल दिया है । शास्त्र या आगम में (आचाराङ्गसूत्र-१।५।६ में) उसे अव्यपदेश्य अर्थात् अनिर्वचनीय कहा है। ___ (२) पञ्चास्तिकायसार – तत्त्वमीमांसीय दृष्टि से यह भी आचार्यश्री का एक बहुत ही महत्वपूर्ण ग्रन्थ है । यह भी मूलतः शौरसेनी प्राकृत में रचित है । इसकी गाथा संख्या अमृतचन्द्रजी की टीका के अनुसार १७३ है, जब कि जयसेनाचार्य ने १८७ मानी है । इसमें जैनतत्त्वमीमांसा की एक महत्वपूर्ण अवधारणा अर्थात् पञ्चास्तिकायों का विवेचन प्रस्तुत किया गया है । मेरी दृष्टि में जैनदर्शन में पञ्चास्तिकायों की अवधारणा मूल है और