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________________ १३४ अनुसन्धान-७० अर्थात् सभी पदार्थों की हमेशा सर्वत्र सत्ता होती ही है, कहीं लौकिक रूप में तो कहीं अलौकिक रूप में । व्यवहार में लौकिकसत्ता का ग्रहण प्रमा, तो अलौकिकसत्ता का ग्रहण भ्रम गिना जाता है । मीमांसको के मत से, भ्रमज्ञान को निरालम्बन मानने पर शून्यवाद या विज्ञानवाद के समर्थन का भय है; तो उसके आलम्बन को असत् मानने पर भी, असत्ख्याति और उसके पीछे शून्यवाद ही चला आता है । और भ्रमज्ञान के आलम्बन को यदि सत् मान ले तो उसकी अनुपलब्धि सम्भवित नहीं होगी । इस परिस्थिति में मीमांसकों ने यह रास्ता ढूंढ निकाला कि भ्रमज्ञान के आलम्बन को सत् मानते हुए भी उसे अलौकिक मान लिया जाय । तब फलित यह होगा कि रजतरूप से प्रतिभासित शुक्तिस्थल में रजतसाध्य क्रिया का अभाव रजत की अलौकिकता के कारण से है, न कि रजत के अभाव के कारण से । इस अलौकिकख्याति के अस्वीकार में दार्शनिकों ने जो कारण दर्शाये हैं वे यह हैं १. अलौकिकत्व का निर्वचन ही शक्य नहीं । व्यवहार में असमर्थ होना अलौकिकत्व की कसौटी नहीं बन सकता । क्यों कि तब तो अलौकिकत्व और असत्त्व में अन्तर ही क्या रह गया ? । वैसे भी शुक्ति में रजत को असत् समझे या अलौकिकसत् समझे, क्या फर्क होता है ? । और तब तो अलौकिकख्याति, असत्ख्याति का नामान्तर ही हुआ । २. शुक्ति में रजत का भ्रम करने वाला, अलौकिक रजत को लौकिक रजत समझकर उसमें प्रवृत्त होता है । तो यह एक तरह से अन्यथाख्याति ही हुई न ? | ३. पश्चाद्भावी ‘नेदं रजतम्' ज्ञान से क्या बाधित होता है ? रजतसामान्य का तो बाध हो नहि सकता, क्यों कि आपके मत से वह तो सदैव शक्तिस्थल में है ही । और लौकिक रजत का बाधं तो कभी प्रतीत नहीं होता । अतः बाध्यबाधकभाव भी अनुपपन्न होता है ।
SR No.520571
Book TitleAnusandhan 2016 09 SrNo 70
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShilchandrasuri
PublisherKalikal Sarvagya Shri Hemchandracharya Navam Janmashatabdi Smruti Sanskar Shikshannidhi Ahmedabad
Publication Year2016
Total Pages170
LanguageSanskrit, Prakrit
ClassificationMagazine, India_Anusandhan, & India
File Size11 MB
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