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जुलाई - २०१६
देवगिरि (दोलताबाद) मां चातुर्मास, ९. जगद्गुरुना उत्तर भारतमां विचरण दरम्यान तेमनी आज्ञाथी श्रीविजयसेनसूरिजीना सहकारमां गुजरातना श्रीसङ्घनी सारसंभाळ, १०. वैराट देशना सङ्घपति इन्द्रराजनी जिनालय - प्रतिष्ठानी विनन्तिना जवाबमां जगद्गुरु द्वारा उपाध्यायना गुणोनी अनुमोदना, 'ओ आव्या ते अमे आव्या बराबर' अवी शीख, अने उपाध्यायने प्रतिष्ठा माटे वैराट जवानो आदेश. ११. अत्यन्त जाहोजलालीथी इन्द्रविहारनी प्रतिष्ठा रासनी रचना सं. १६५५नी आसो सुदि-५ ना दिवसे थई छे. तेथी त्यार पछीनी हकीकतो आमां न होय ते स्वाभाविक छे..
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रासना कर्ता उपाध्याय श्रीकल्याणविजयजीना ज शिष्य पण्डित श्रीजयविजयजी छे. तेओओ गणिपद-पर्यायमां आ रासनी रचना करी होवानुं रासना अन्ते आपेली पुष्पिका परथी जणाय छे. आ रास सिवाय तेओओ शोभनस्तुति पर वृत्ति, कल्पदीपिका-वृत्ति (कवि श्री ऋषभदासना श्रीहीरविजयंसूरिरासगत उल्लेखना आधारे), श्रीहीरविजयसूरि - पुण्यसज्झाय (सं. १६४२), प्राचीन तीर्थमाळा भाग - १ मां प्रकाशित समेतशिखर रास (सं. १६६४) वगेरे रचनाओ करी छे. जगद्गुरु शहेनशाह अकबर साथेनी मुलाकात वखते पोताना विशाळ शिष्यपरिवारमाथी जे १३ चूंटेला श्रमणोने साथे लई गया हता, तेमां ओक आ श्रीजयविजयजी पण हता ते वात पण तेओनी विशिष्ट प्रतिभानी द्योतक छे. आवा प्रतिभावन्त कविनी रचना होय अने रचनाना केन्द्रमां पण अनन्य प्रतिभासम्पन्न महापुरुष होय, अ रचना वांचंवा-गावा - सांभळवानो आनन्द केवो अलौकिक होय !
प्रस्तुत रास आ पूर्वे अध्यात्मज्ञान प्रसारक मण्डल, मुम्बई तरफथी सं. १९६९मां (आजथी लगभग १०३ वर्ष पूर्वे) प्रकाशित जैन औतिहासिक रासमाला भाग - १ मां मोहनलाल दलीचंद देशाई द्वारा सम्पादित थईने प्रकाशित थयेलो ज छे. पण ते वाचनामां कोई पण कारणसर अनेक गम्भीर क्षतिओ रही गई छे. तेथी समग्र वाचना हस्तप्रतना आधारे पुनः लिप्यन्तरण, सम्पादन करीने प्रगट करवी आवश्यक गणी छे.
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४८०/२५२०, पत्र
रासना लिप्यन्तरण, सम्पादनमां आधार बनेली हस्तप्रत श्रीभावनगर तपागच्छीय श्वे.मू.पू. सङ्घना ज्ञानभण्डारनी छे. प्रतक्रमाङ्क १३, महदंशे शुद्ध वाचना. प्रतनी छायाप्रति आपवा बदल श्रीसङ्घनी शेठ डोसाभाई अभेचंदनी पेढीना कार्यवाहकोनो आभार. प्रतमां कडीक्रमाङ्कोनी गरबड हती ते दूर करीने सळंग क्रमाङ्क आप्या छे ते वाचकोनी जाण सारु.