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जुलाई-२०१६
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है । किन्तु उनके साथ पूर्वधर आदि होने के जो विशेषण दिये गये हैं, वे तो प्रथम भद्रबाहु के सम्बन्ध में ही युक्त या सुसंगत हो सकते हैं । पुनः कुछ दिगम्बर विद्वानों ने भद्रबाहु प्रथम को ही गमक गुरु मानकर यह संगति बिठाई है, किन्तु यह वास्तविक संगति नहीं है । गमक गुरु मानने में कोई बाधा तो नही है, किन्तु इससे समकालिकता या प्राचीनता का निर्णय नहीं हो पाता है । क्यों कि आज भी भगवान महावीर या गौतम हमारे सब के गमक गुरु तो है ही । अस्तु । श्वेताम्बरों ने जिन दूसरे भद्रबाहु (वराहमिहिर के भाई) की कल्पना की है, उनका काल लगभग ईसा की सातवीं शती है । अतः उनसे भी कुन्दकुन्द की कालिक समरूपता ठीक से नहीं बैठती है । कुन्दकुन्द के गुरु के रूप में दूसरा नाम जिनचन्द्र का भी माना जाता है । किन्तु ये जिनचन्द्र कौन थे, कब हुए, इसका कोई भी सबल प्रमाण नहीं मिलता है । श्वेताम्बरों में जिनचन्द्र नाम के अनेक आचार्य हुए हैं, इनमें कुन्दकुन्द के गुरु कौन से जिनचन्द्र थे, यह निर्णय कर पाना कठिन है । सम्भवतः जिनचन्द्र नाम के आधार पर आचार्य हस्तीमलजी ने यह कल्पना कर ली हो कि कुन्दकुन्द पहले श्वेताम्बर परम्परा में दीक्षित हुए, फिर शिवभूति के प्रभाव से यापनीय या बोटिक हो गये और फिर दिगम्बर होकर मुनि की अचेलता का जोरों से समर्थन करने लगे । किन्तु इस सम्बन्ध में सबल प्रमाण खोज पाना कठिन है । अतः यह आचार्यश्री की स्वैर कल्पना ही हो सकती है । प्रमाणिक तौर पर निश्चयात्मक रूप से कुछ भी कल्पना कर पाना कठिन ही है । इतना निश्चित ही है कि वे अपने लेखन के आधार पर तो दिगम्बर परम्परा के ही आचार्य सिद्ध होते हैं । दक्षिण में दिगम्बर परम्परा का ही बाहुल्य था, अतः यह निश्चित है कि उनका समस्त लेखन दिगम्बर परम्परा से प्रभावित रहा है । कुन्दकुन्द का काल ।
कुन्दकुन्द का समय क्या है ?, यह भी अत्यन्त ही विवादास्पद विषय रहा है । जहाँ कुछ दिगम्बर विद्वान् उन्हें ई.पू. प्रथम शताब्दी में