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अनुसन्धान-७०
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मृगपति नइ मृग अक ठामि, बिहु जमला बइठा । नाग-मोर माजार-हंस, सुखस्युं ते दीठा । वाघ-वृषभ नइ ससा-स्वीन, हेजइ ते हरखइ ।
जाति-वैर उपसांत होइ, जिनवर-मुख निरखइ ॥ त्रूटक - सुर-नर-किंनर-असुर-नर-विद्याधरनी कोडि । .
मन-वचन-तनु भावसुं, पाय प्रणमइ कर जोडी ॥४॥ त्रिभुवनतारण देव तुहि, मन जाणइ एक । रसना त्रिपति लहइ सदा, गुण गाय वशेष ॥ . तुम्ह गुण श्रवणे सांभळी, सुखस्याता थाइ ।
रोम-रोम आणंद घj, अंगइ नवि माय ॥ त्रूटक - आंखि करि उम्हाहलुं ए, तुम्ह मुख जोवा देव ।
श्रीविमलहर्षशिष्य प्रेमनइ, देजो तुम्ह पद सेव ॥५॥
(२) पंचतीर्थ-नमस्कार श्रीसेजेजउ सिद्धक्षेत्र, दुर्गति-दुख वारइ । भाव धरीनइ चडइ जेह, भव-पार उतारइ ॥ अनंत सिद्धनउ ठाम, सकल तीरथनउ राय ।
पूरव नवाणु ऋषभदेव, ठविया तिहां पाय ॥ त्रूटक - सूरजकुंड सोहामणु ए, कवडजक्ख अभिराम ।
नाभिराय कुलमंडणु, जिनवर करु प्रणाम ॥१॥ प्रथम तीर्थ कीय चक्कवइ, भरहेसर जाण । चउवीसइ जिनतणा, बिंब तिहां मान प्रमाण || आठ जोजन गिरि उंच-पणइ पामइ उजल ।
जोयण जोयण पावडी मान, सगर सुत कीध निर्मल ॥ २. जोडे । ३. तृप्ति । ४. उमळको ।