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जुलाई-२०१६
कुंअर विवेकी निरखीओ, मनिं चीतवइ गणधार ललणां । जु ए चारित्र-लछि वरइ, तु होइ गछ-सिणगार ललणां । हीर० ॥१३०॥ विनय करी गुरु वंदिआ, बइसइ उचित प्रदेस ललणां । जय जंपइ भविअण सुणो, साचु गुरु उपदेश ललणां । हीर० ॥१३१।।
इति श्रीगुरुवर्णननी ढाल ॥६।।
दूहा ॥ राग केदारू ॥
जंगम तीरथ जागतुं, जंबूद्वीपमां हीर । जय जंपइ जस नामथी, पामीजइ भव-तीर ॥१३२।। . हीरजी-वांणि सुणंतडां, दुरित पणासइ दूरि । जय जंपइ सुख संपजइ, होइ लछि भरपूर ॥१३३।। श्रीहीरविजय सूरीसरू, चारित्र-गुण-मणि-खाणि । भविक जीव प्रतिबूझवइ, देसन मीठी वाणि ॥१३४॥
॥ ढाल ॥
गुरु देसन मीठी वाणी, भव-सायर-तरीअ-समांणी । उपसम-रस केरी खाणी, एकचिंति सुणु भवि प्राणी ! ॥१३५।। भव-जलही भीम अपारो, जीव भमीओ अनंती वारो । जीवा-ज्योनि लाख चोरासी, परतेकई जोई अभ्यासी ॥१३६।। ईणि जीवई जे भव कीधा, अवतार फिरी फिरी लीधा । ज्ञानवंति कह्या नवि जाइ, जीव सुखई न बइठु किहांइ ॥१३७।। जीव पाप करइ परकाजइं, सर्व कुटंब मिली धन खाजइ । जीव परभवि सहइ बहू पीडा, कोइ विहिंचणि नावइ नीडा ॥१३८।। पिंड पापिं कीधु मिइलु, जीव भमइ अनाथ एकीलु । कोइ कहिंनु सरण न होई, जनम-मरण करइ सवि कोइ ॥१३९।।