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अनुसन्धान-७०
सांभलतां सुख संपजई, दुरगतिनां दुख जाय । जय जंपइ भविअण सुणु, मंदिर अभरि भराय ॥५४॥ जेणि बहु पक्ख अजुआलीया, पितरि-पख्य मुहसाल । जय जंपइ भविअण सुणो, ते नमीइं त्रण-काल ॥५५॥
ढाल ॥ चुपई ॥ नयर महिसाणां ऊतम गाम, सदाइ ते धरम-करमनो ठाम । वसइ व्यवहारी तिहां धनवंत, चंपक नामई बहू गुणवंत ॥५६॥ चंपक श्रेष्ठितणी कुअरी, सोहग संघपरि(ति?) हरखइ वरी । हरखा संघपति हूओ प्रसिध, जस घरि धनद-समाणी रिधि ॥५७|| तस घरि धरणी बहू गुणवती, नामि पूंजी शीअलई सती । निज रूपइं जीती अपछरा, पति-भक्ता पति-चित्त-अनुचरा ||५८|| कोमल चंपक-वान शरीर, पहिरणि नारी-कुंजर चीर ।
ओढणी नवरंगी चूनडी, सोव्रण-चूडी माणिकि जडी ॥५९॥ . नित नवला करइ बहू सिणगार, ते कहितां नवि पा{ पार । चंद्र-वदनि मृग-नयणी भj, नव-जोवन लावण्य अतिघणुं ॥६०|| पाइं नेउर रमझम करइ, चालइ मत्त मयगलनी परि । प्रियसिउं प्रेम जी मंडइ प्राणि, गीत-नृत्य-वाजिब गुण-जाण(णि) ॥६१|| विनय-विवेक-विसुध-गुण-भरी, जाणिं कल्प-वेली अवतरी ।
देव-गुरु-भक्ति करइ उल्लसी, बोलइ वचन मरकलडइ हसी ॥६२।। प्रियसिउं प्रेमि अहनिशि रमइ, सुख-भरि काल इणीपरि गमइ । पुजी मात ऊअरिं ग्रभ धरिओ, कोइ पुण्यवंत सुर ते अवतरिओ ॥६३॥ सुख-सिज्या सुती कामिनी, देखइ सुपन ते मधि-यामिनी । वदन माहइं पइसंतु सीह, देखी जागी अकल-अबीह ॥६४॥