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अथ दिनचर्यायां प्रथमोल्लास: : 27 में बहते हों, उस समय जागृत हो जाना शुभकारी समझना चाहिए। तेज, वायु और आकाश तत्त्व जब प्रवाहित हों उस समय जागृत होना अशुभ समझना चाहिए।*
शुक्ल प्रतिपदो वायुश्चन्द्रेऽथा त्र्यहं त्र्यहम्। वहन् शस्तोऽनया रीत्या विपर्यासे तु दुःखदः॥25॥
सामान्यतया शुक्ल पक्ष की प्रतिपदा तिथि से लेकर प्रथम तीन दिन चन्द्रनाड़ी में वायु तत्त्व, तदोपरान्त दूसरे तीन दिन सूर्य नाड़ी में वायु तत्त्व- ऐसे पखवाड़ा पूर्ण होता है वहाँ तक चलें तो शुभ जानना चाहिए। इसके विपरीत अर्थात् पहले तीन दिन सूर्य नाड़ी में वायु तत्त्व और बाद के तीन दिन चन्द्रनाड़ी में वायु तत्त्व हो तो अशुभ समझना चाहिए।
सार्धं घटीद्वयं नाडिरेकैकार्कोदयाद्वहेत्। अरघट्टघटी भ्रान्ति न्यायानाड्यः पुनः पुनः॥26॥
जिस प्रकार जलोत्थान के लिए चलने वाले रहट की माला की घटिकाएँ एक के एक बाद एक अनुक्रम से पानी से भर जाती हैं और खाली होती जाती हैं, वैसे ही सूर्योदय से लेकर चन्द्रनाड़ी और सूर्यनाड़ी ढाई-ढाई घड़ी तक प्रवाहमान होती है।
शतानि तत्र जायन्ते निश्वासोच्छासयोर्नव। खखषट् कुकरैः सङ्ख्याहाराने सकले पुनः॥27॥
इस प्रकार श्वास की घटी-माला में नौ सौ श्वासोच्छास चलते हैं और सम्पूर्ण अहोरात्र अर्थात् साठ घड़ी में इक्कीस हजार छह सौ (21600) श्वासोच्छवास सञ्चालित होते हैं।
षट्त्रिंशद्गुरु वर्णानां या वेला भणने लगेत्। सावेला मरुता नाड्यानाड्यां सञ्चरतो लगेत्॥28॥
कालानुसार गणना के अनुसार छत्तीस गुरु या दीर्घ अक्षरों के उच्चारण करने में जितना समय लगता हैं उतना ही समय वायु को एक नाड़ी को त्यागकर दूसरी नाड़ी में प्रवेश करने में लगता है। तत्त्वसञ्चरणक्रमानि
प्रत्येकं पञ्चतत्त्वानी नाड्योश्च वहमानयोः। वहन्त्यहर्निशं तानि ज्ञातव्यानि जितात्मभिः ॥29॥ प्रवहमान सूर्यनाड़ी और चन्द्रनाड़ी में पृथ्वी आदि पाँचों ही तत्त्व रात-दिन
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* पवनविजयस्वरोदय, गरुडपुराणादि में तत्त्वों के प्रवाह को जानने की विधियाँ वर्णित हैं।