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242 : विवेकविलास
बहुश्रुत पण्डित, धर्मशास्त्र में निपुण, सदुपदेशक और वयोवृद्ध लोगों की निरन्तर सेवा, सम्मान करना चाहिए।
इहामुत्र विरुद्धं यत्तत्कुर्वाणं नरं त्यजेत्।
आत्मानं यः स्वयं हन्ति त्रायते स कथं परम्॥399॥
इहलोक और परलोक विरुद्ध कार्य करने वाले व्यक्ति से सर्वदा दूर रहना ही श्रेयस्कर है क्योंकि जो मनुष्य आपघात करता है, वह दूसरे की रक्षा भला किस प्रकार कर सकता है।
शौर्येण वा तपोभिर्वा विद्यया वा धनेन वा। अत्यन्तमकुलीनोऽपि कुलीनो भवति क्षणात्।।400॥
मनुष्य अत्यन्त हीन कुल में भी हुआ हो किन्तु वह पराक्रम, तपश्चर्या, विद्या या धनबल से शीघ्र ही सम्भ्रान्त लोगों में परिगणित हो जाता है।
कुर्यान्त्रात्मानमत्युच्चमायासेन गरीयसा। ततश्चेदवपातः स्याहूःखाय महते तदा॥401॥ ..
चतुर व्यक्ति को अपने बहुत परिश्रम से (बिना सुदृढ़ आधार बनाए) स्वयं को बहुत ऊँचे पद पर नहीं चढ़ाना चाहिए क्योंकि जो जब वह पुनः उस स्तर से नीचे गिरे जाए तो अपार दुःख होगा।
दैविकर्मानुषैर्दोषैः प्रायः कार्य न सिद्ध्यति। दैविकं वारयेच्छान्त्या मानुषं स्वधिया पुनः।।402॥
कभी कोई कार्य देवता अथवा मनुष्य के किए उपद्रव से सिद्ध नहीं होता। अतएव दैविक उपद्रव अपनी बुद्धि से दूर करना चाहिए।
प्रतिपन्नस्य न त्यागः शोकश्च गतवस्तुनः। निद्राच्छेदश्च कस्यापि न विधेयः कदाचन॥403॥ .
स्वीकार किए गए वचन को तोड़ना, गत वस्तु का शोक मनाना और किसी की निद्रा को तोड़ना- ऐसा किसी भी समय नहीं करना चाहिए।
अकुर्वन् बहुभिवैरं दद्याद्वहुमते मतम्। गतास्वादानि कृत्यानि न कुर्याद्बहुभिः समम्॥404॥
हमेशा अपनी सम्मति ऐसी हो जो बहुत जनों के साथ वैर को नहीं बढ़ाए और स्वादरहित कार्य बहुत लोगों के साथ नहीं करना चाहिए।
शुभक्रियासु सर्वासु मुखैर्भाव्यं मनीषिभिः। नराणां कपटेनापि निःस्पृहत्वं फलप्रदम्॥ 405॥ समझदार व्यक्ति वह है जो कि समस्त शुभ कृत्यों में सदैव अग्रसर होता है।