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अथ परमपदनिरूपणं नामाख्यं द्वादशोल्लास: : 281
पर्यन्त प्रतिभाविशेषवशतो ज्ञात्वा निजस्यायुषः कायत्यागमुपासते सुर्वृतिनः पूर्वोक्तया शिक्षया ॥ 11 ॥
बाल्यावस्था से लेकर चिरकाल तक किए गए सुकृत से अपना जीवन सफल करके धर्म - ध्यान में अपना मन लगाए रखने वाले और मोह को नष्ट करने के लिए प्रयत्न करने वाले- ऐसे पुण्यशाली लोग अवसर आने पर अपने आयुष्य का अन्त विशेष ज्ञान से ज्ञातकर उपर्युक्त रीति से ही देह का विसर्जन करते हैं। स श्रेष्ठः पुरुषाग्रणीः स सुभटोत्तंसः प्रशंसास्पदं
स प्राज्ञः स कलानिधिः स च मुनिः स क्ष्मातले योगवित् । स ज्ञानी स गुणिव्रजस्य तिलकं जानाति यः स्वां मूर्ति निर्मोहः समुपार्जयत्यथ पदं लोकोत्तरं शाश्वतम् ॥ 12 ॥ जो व्यक्ति अपना मरण जान ले और मोहनीय कर्म का अति क्षय कर लोक के अन्त में शाश्वतपद (मुक्तिपद) को पाते हैं, वे ही जगत् में श्रेष्ठ, मनुष्यों में शिरोमणि, सुभटों के अग्रसर, प्रशंसा के पात्र, पण्डित प्रवर, कला में कुशल, मुनिराज, • योगी, ज्ञानी और गुणी लोगों में श्रेष्ठ होते हैं ।
इति श्रीजिनदत्तसूरि विरचिते विवेकविलासे परमपदनिरूपणं नाम द्वादशोल्लासः ॥ 12 ॥
इस प्रकार श्री जिनदत्तसूरि कृत 'विवेकविलास' में परमपद निरूपण संज्ञक बारहवाँ उल्लास पूर्ण हुआ ।