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280 : विवेकविलास
विद्वान् हो अथवा मूर्खमति, सभी जीवों का मरना तो निश्चित ही है। इसलिए विवेकी पुरुषों को भय या शोक किसलिए करना ।
सत्पुरुषस्वभावाह
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दित्सा स्वल्पधनस्याथावष्टम्भः कष्टितस्य च । गतायुषोऽपि धीरत्वं स्वभावोऽयं महात्मनाम् ॥ 6 ॥
अल्प धन होने पर भी दान करने की इच्छा, दुःख आने पर मन की स्थिरता और मृत्यु समीप आने पर भी धीरता रखना - ये सत्पुरुषों ये स्वभाव है । नास्ति मृत्युसमं दुःखं संसारेऽत्र शरीरिणाम् ।
तत: किंमपि तत्कार्यं येनैतन्न भवेत्पुनः ॥ 7 ॥
जीवों को इस संसार में मरण के समान कोई अन्य दुःख नहीं । अतएव जिससे पुनः मरण न हो, ऐसा कुछ-न-कुछ कृत्य अवश्य करना चाहिए। पुनश्चक्रशोचनीयं –
शुभं सर्व समागच्छच्छ्लाघनीयं पुनः पुनः । क्रियासमभिहारेण मरणं तु त्रपाकरम्॥ 8॥
समस्त शुभ प्रसङ्गों की पुनरावृत्ति हो, यह श्लाघनीय है किन्तु अविरत जीव को मरण बारम्बार होता है, यह खेदपूर्ण है।
सर्ववस्तुप्रभावज्ञैः सम्पन्नखिलवस्तुभिः ।
आयुः प्रवर्धनोपायो जिनैर्नाज्ञापि तैरपि ॥ 9 ॥
सर्ववस्तु-प्रभावज्ञ, निखिल वस्तु-सम्पन्न जिनदेव की जानकारी में भी आयुष्य बढ़ाने का उपाय नहीं आया, अर्थात् सर्व सम्पन्न भी आयु की मर्यादा का उलङ्घन नहीं करते।
सर्वेषां पूर्वजाः सर्वे नृणां तिष्ठन्तु दूरतः ।
एकैकोऽपि स्थिरश्चेत्स्याल्लोकः पूर्येत तैरपि ॥ 10 ॥
सब लोगों के समस्त पूर्वज तो दूर रहें किन्तु प्रत्येक वर्तमान जीव भी यदि जगत् में जीवित रहे (अर्थात् मरे नहीं) तो पूर्ण लोक उनसे भर जाए । उपसंहरन्नाह
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आबाल्यात्सुकृतैः स्वजन्म सकलं कृत्वा कृतार्थं चिरं धर्मध्यानविधानलीनमनसो मोहव्यपोहोद्यताः ।
कटोपनिषद में आया है— न जायते म्रियते वा विपश्चिन्नायं कुतश्चिन्न बभूव कश्चित् । अजो नित्यः शाश्वतोऽयं पुराणो न हन्यते हन्यमाने शरीरे ॥ (कठ. 1, 2, 18 तुलनीय गीता 2, 20)