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278 : विवेकविलास
अन्तरायत्रुटेर्ज्ञानं कियत्वापि प्रवर्तते। मतिश्रुतप्रभृतिकं निर्मलं केवलावधि॥ 92॥
1. मति, 2. श्रुत, 3. अवधि, 4. मनःपर्यव और 5. केवल- इन पाँच निर्मल ज्ञानों में से कुछ ज्ञान कई बार किसी ज्ञानान्तराय के टूटने से होता है।
त्रिकालविषयव्यक्ति चिन्तासन्तानधारकम्। नानाविकल्पसङ्कल्प रूपं चित्तं प्रवर्तते ॥१॥
चित्त ही भूत-भविष्य-वर्तमान इन तीनों कालों, सन्तानादि की चिन्ता को धारण करने वाला और नानाविध सङ्कल्प-विकल्प रूप होता है।
नास्तिकस्यापि नास्त्येव प्रसरः प्रश्नकर्मणि। नास्तिकत्वाभिमानस्तु केवलं बलवत्तरः॥94॥
वैसे नास्तिक को इस सम्बन्ध में प्रश्न करने का अवकाश नहीं ही है किन्तु उसे केवल नास्तिकत्व का अहङ्कार उत्तरोत्तरं बलवान होता है। उपसंहरन्नाह -
ध्यातुर्न प्रभवन्ति दुःखविषमव्याध्यादयः सिद्धिः पाणितले स्थितेव पुरतः श्रेयांसि सर्वाण्यपि। त्रुट्यन्ते च मृणालनालमिव वा मर्माणि दुष्कर्मणां तेन ध्यानसमं न किञ्चन जने कर्तव्यमस्त्यद्भुतम्॥95॥
ध्यान करने वाले मनुष्य पर दुःख, विषम व्याधि और मन के विकार अपना जोर नहीं चला सकते; सिद्धियाँ उनके हस्तामलकवत् होती है; समस्त कल्याण उनके सम्मुख चाकर के समान होते हैं और अनुचित कर्म के मर्म कमलतन्तु की तरह सहज में भग्न हो जाते हैं। अतएव जगत् में ध्यान जैसा आश्चर्यकारक कोई भी कर्तव्य नहीं है। इति श्रीजिनदत्तसूरि विरचिते विवेकविलासे ध्यानस्वरूपनिरूपणं
नामैकादशोल्लासः॥11॥ इस प्रकार श्रीजिनदत्तसूरि विरचित 'विवेक विलास' में ध्यान स्वरूप निरूपण संज्ञक ग्यारहवाँ उल्लास पूर्ण हुआ।