Book Title: Vivek Vilas
Author(s): Shreekrushna
Publisher: Aaryavart  Sanskruti Samsthan

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Page 246
________________ 244 : विवेकविलास स्वाङ्गवाद्यं तृणच्छेदं व्यर्थ भूमिविलेखनम्। नैव कुर्यान्नखैर्दन्त नखराणां च घर्षणम्॥411॥ कभी अपने ही किसी अङ्गको बाजे की भाँति नहीं बजाना चाहिए। अकारण घास के टुकड़े नहीं करे, व्यर्थ अपने नाखून से भूमि नहीं खोदे और नख से या दन्त से ही दन्त नहीं घिसने चाहिए। स्वात्मोद्धारोपायमाह - प्रवर्तमानमुन्मार्गे स्वं स्नेनैव निवारयेत्। किमम्भोनिधिरुद्वेलः स्वस्यादन्येन वार्यते॥412॥ यदि अपनी आत्मा कुमार्ग पर जाती हो तो उसे स्वयं ही निरुद्ध करना चाहिए। यह ठीक वैसे ही जाने जैसे कि समुद्र की लहरें यदि मर्यादा से अधिक चढ़ती हो तो उन्हें समुद्र ही रोकता है, अन्य कोई नहीं। सम्मानसहितं दानमौचित्येनाञ्चितं वचः। नयेन वर्यं शौर्य च त्रिगद्वश्यकृत्रयम्॥ 413॥ सम्मान सहित दान, अवसरोचित श्रेष्ठ कथन और न्यायपूर्वक शौर्य- इन तीनों चीजों से निखिल संसार को वशीभूत किया जा सकता है। अथ लोकव्यवहारमाह - अर्थादधिकनेपथ्यो वेषहीनोऽधिकं धनी। अशक्तो वैरकृच्छक्तैर्महद्भिपहस्यते॥414॥ अपने पास जितना धन हो, उससे कहीं महंगा वस्त्र धारण करने वाला, धनवान होकर भी सामान्य वस्त्रादि पहनने वाला तथा असमर्थ होते हुए भी समर्थ लोगों के साथ वैर बढ़ाने वाला- ये लोग जग में उपहास के पात्र होते हैं। चौर्याद्यैर्बद्धवित्ताशः सदुपायेषु संशयी। सत्यां शक्तौ निरुद्योगो नरः प्राप्नोति न श्रियम्॥415॥ चोरी-तस्करी, भ्रष्टाचार आदि से धन कमाने का अभिलाषी, द्रव्योपार्जन के उत्तम उपायों पर सदा ही सन्देह रखने वाला और सशक्त होने पर भी उद्यम नहीं करने वाला कभी लक्ष्मी को नहीं पाता है। फलकाले कृतालस्यो निष्फलं विहितोद्यमः। निःशङ्कः शत्रुसङ्गेऽपि न नरश्चिरमेधते॥416॥ * तुलनीय- न छिन्द्यान्नखलोमानि दन्तैर्नोत्पाटयेन्नखान्॥ (मनु. 4, 69) और–नोत्पाटयेल्लोमनखं दशनेन कदाचन ॥ (स्कन्द. ब्रह्म. धर्मारण्य. 6, 69); न गात्रनखवकावादित्रं कुर्यात्। (सुश्रुत. चिकित्सा. 24, 95); लोष्ठमर्दी तृणच्छेदी नखखादी च यो नरः। स विनाशं व्रजत्याशु सूचकोऽशुचिरेव च॥ (मनु. 4,71)

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