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264 : विवेकविलास स्वस्थपुरुषलक्षणं
समाग्निः समदोषश्च समधातुमलः पुमान्। सुप्रसन्नेन्द्रियमनाः स्वस्थ इत्याभिधीयते॥11॥
जिसकी जठराग्नि, कफादि दोष, रसादि धातु और मल एक-सा हो अर्थात् वैद्यक शास्त्र में जिसका जितना प्रमाण बताया गया है वह उतने ही प्रमाण में हो और जिसकी इन्द्रियाँ और मन सुप्रसन्न हो- ऐसा पुरुष स्वस्थ कहलाता है। ध्यानयोग्यपुरुषलक्षणं---
स्वस्थः पद्मासनासीनः संयमैकधुरन्धर।
क्रोधादिभिरनाक्रान्तः शीतोष्णद्यैरनिर्जितः॥12॥ . भोगेभ्यो विरतः काममात्मदेहेऽपि निःस्पृहः।।
भूपती दुर्गते वापि सममानसवासनः॥13॥ समीरण इवाबाद्धः सानुमानिव निश्चलः। इन्दुवज्जगदानन्दी शिशुवत्सरलाशयः॥14॥ सर्वक्रियासु निर्लेपः स्वस्मिन्नात्मावबोधकृत्। जगदप्यात्मवजानन् कुर्वनाममयं मनः॥15॥ मुक्तिमार्गरतो नित्यं संसाराच्च विरक्तिभाक्। गीयते धर्मतत्वज्ञैर्धीमान् ध्यानक्रियोचितः॥16॥
धर्मतत्त्व के ज्ञाता पुरुष ऊपर कथनानुसार स्वस्थ, पद्मासनस्थ, इन्द्रियों को वश करने में निपुण, क्रोधादि कषायों के वशीभूत नहीं हुआ, शीतोष्ण आदि परिषह से सर्वथा अपराजित, विषयभोग से वैराग्यवान्, अपनी देह पर बिल्कुल इच्छा नहीं रखने वाला, राजा और रङ्क को समदृष्टि से देखने वाला, वायु के समान किसी जगह प्रतिबन्ध न रखने वाला, पर्वत के समान निश्चल, चन्द्रमा के समान जगत् को आनन्द देने वाला, शिशु के समान सरल स्वभावी, समस्त क्रियाओं में निर्लेप, अपने में अपने को जानने
तथा चित्रामों से मण्डित स्थान जो कि दर्पण के समान प्रतीति देता हो और जहाँ काले अगरु की सुवास हो, विभिन्न भाँति के पुष्पों से समाकीर्ण स्थल जिसमें ऊपर वितान की शोभा हो; फल, पल्लव तथा मूलयुक्त स्थान, कुश-पुष्पों से युक्त स्थान में भली प्रकार आसन पर स्थित होकर स्वयं परम प्रसन्न होते हुए, योग के अङ्गों का अभ्यास करना चाहिए। आरम्भ में, पहले गुरु को प्रणाम करे और बाद में शिव, देवी, तथा विनायक को प्रणाम करना चाहिए- अग्न्यभ्यासे जले वापि शुष्कपर्णचये तथा। जन्तुव्याप्ते श्मशाने च जीर्णगोष्ठे चतुष्पथे। सशब्दे सभये वापि चैत्यवल्मीकसञ्चये। अशुभे दुर्जनाक्रान्ते मशकादिसमन्विते ॥ नाचरेद्देहबाधायां दौर्मनस्यादिसम्भवे । सुगुप्ते शुभे रम्ये गुहायां पर्वतस्य तु ॥ भवक्षेत्रे सुगुप्ते वा भवारामे वनेपि वा। गृहे तु सुशुभे देशे विजने जन्तुवर्जिते । अत्यन्तनिर्मले सम्यक् सुप्रलिप्ते विचित्रिते। दर्पणोदरसंकाशे कृष्णागरुसुधूपिते ॥ नानापुष्पसमाकीर्णे वितानोपरि शोभिते। फलपल्लवमूलाढ्ये कुशपुष्पसमन्विते । समासनस्थो योगाङ्गान्यभ्यसेद्धृषितः स्वयम्। प्रणिपत्य गुरुं पश्चाद्भवं देवीं विनायकम् ॥ (लिङ्ग. पूर्व. 8, 79-85)