Book Title: Vivek Vilas
Author(s): Shreekrushna
Publisher: Aaryavart  Sanskruti Samsthan

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Page 275
________________ अथ ध्यानस्वरूपनिरूपणं नामाख्यं एकादशोल्लासः : 273 ज्ञानी पुरुष कर्म से परिवेष्टित जीव को ही संसार कहते हैं जबकि कर्म से रहित जीव को साक्षात् मोक्ष कहते हैं। अयमात्मैव निःकर्मा केवलज्ञानभास्करः। लोकालोकं यदा वेत्ति प्रोच्यते सर्वगस्तदा ।। 63॥ यह जीव ही कर्म से रहित होकर और केवल ज्ञान से सूर्यवत् होकर इहलोक-परलोक को जब जान लेता है तब वह 'सर्वगामी' कहलाता है। शुभाशुभैः परिक्षीणैः कर्मभिः केवलो यदा। एकाकी जायते शून्यः स एवात्मा प्रकीर्तित ॥ 64॥ जीव अपने शुभाशुभ कर्मों के अति ही क्षीण होने पर जब केवल एकाकी होता है तब वह 'शून्य' कहलाता है। अथ आत्मध्यानमाह लिङ्गत्रयविनिर्मुक्तं सिद्धमेकं निरञ्जनम्। निराश्रयं निराहारमात्मानं चिन्तयेद्बुधः। 65॥ सुज्ञ पुरुष को स्त्री-पुरुष-नपुंसक इन तीनों लिङ्गों से रहित, सिद्ध, एकात्म, निरञ्जन, निराश्रय, निराहार-ऐसे आत्मा का ध्यान करना चाहिए। जितेन्द्रियत्वमारोग्यं गात्रलाघवमार्दवे। मनोवचनवत्कायप्रसत्तिश्चेतनोदयः। 66॥ बुभुक्षामत्सरानङ्गमानमायाभयक्रुधाम्। निद्रालोभादिकानां च नाशः स्यादात्मचिन्तनात्॥67॥ आत्मा का ध्यान करने से इन्द्रियाँ वशीभूत होती हैं; शरीर आरोग्य, हल्का होता है; कोमलता उत्पन्न होती है; मन, वचन और काया प्रसन्न होती है; चेतना का उदय होता है और क्षुधा, मत्सर-काम-विकार, अहङ्कार, कपट, भय, क्रोध, निद्रा और लोभ इत्यादि विकारों का विनाश होता है। आत्मस्थस्थितिं - लयस्थो दृश्यतेऽभ्यासाजागरूकोऽपि निश्चलः। प्रसुप्त इव सानन्दो दर्शनात्परमात्मनः। 68॥ अभ्यास से ध्यानस्थ हुआ और परमात्म-दर्शन से आनन्दित जीव जागृत हो तो भी शयित की भाँति ही निश्चल रूप में दिखाई देता है। मनोवचनकायनामारम्भो नैव सर्वथा। कर्तव्यो निश्चलैर्भाव्यमौदासीन्यपरायणैः। 69॥ विवेकी पुरुषों को मन, वचन और काया से सर्वथा सब आरम्भों का वर्जन

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