Book Title: Vivek Vilas
Author(s): Shreekrushna
Publisher: Aaryavart  Sanskruti Samsthan

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Page 257
________________ अथ धर्मोत्पत्तिप्रकरणं नामाख्यं दशमोल्लास: : 255 अनल्पकुविकल्पस्य मनसः स्थिरता नृणाम्। न जायते ततो देवाः कुतः स्युस्तद्वशंवदाः॥6॥ नाना प्रकार के अध्यवसाय से मनुष्यों के मन की स्थिरता नहीं रहती, झंझालों में वह उलझ जाता है। इससे देवता उसके वश कैसे हों? आगताप्यन्तिकं सिद्धिर्विकल्पनीयतेऽन्यतः। अनादरवतां पार्थे कथं को वावतिष्ठते॥7॥ निकटस्थ सिद्धि भी अनुचित अध्यवसाय से अन्यत्र चली जाती है क्योंकि आदर नहीं करने वाले मनुष्य के पास कौन और कैसे ठहर सकता है? धर्मप्रशंसामाह - विश्वशाध्यं कुलं धर्माद्धर्माजातिमनोरमा। काम्यं रूपं भवेद्धर्माद्धर्मात्सौभाग्यमद्भुतम्॥8॥ धर्म से संसार में प्रशंसित कुल, उत्तम जाति, मनोहर रूप और आश्चर्यकारक सौभाग्य की प्राप्ति होती है। नीरोगत्वं भवेद्धर्माद्धर्माद्दीर्घत्वमायुषः। धर्मादर्थो भवेदोग्यो धर्माज्ज्ञानं वपुष्मताम्॥१॥ धर्म से ही मनुष्य को आरोग्य, दीर्घायु, भोगने के योग्य धन-वैभव और ज्ञान की प्राप्ति होती है। मेघवृष्टिर्भवेद्धर्माद्धर्माद्दिव्येषु शुद्धयः। धर्मान्मुद्रां समुद्रश्च नोज्झत्येव कदाचन ॥10॥ धर्म से वृष्टि होती है, धर्म से दिव्य में शुद्धि होती है और धर्म से ही समुद्र कभी अपनी मर्यादा को किसी भी समय नहीं छोड़ता है। धर्मप्रभावतो याति न रसापि रसातलम्। धर्मार्थकाममोक्षाणां सिद्धिर्धर्माच्छरीरिणाम्॥11॥ धर्म के प्रभाव से पृथ्वी रसातल को नहीं जाती और धर्म से ही मनुष्य को धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष चारों पुरुषार्थ का फल मिलता है। यदन्यदपि सद्वस्तु प्राप्नोति हृदयेप्सितम्।। जीवः स्वर्गापवर्गादि तस्सर्वं धर्मचेष्टितम्॥12॥ स्वर्ग, मोक्ष इत्यादि सहित अन्य कोई भी इच्छित वस्तु जीव को उपलब्ध होती है तो उस सबको धर्म के ही प्रभाव से प्राप्ति हई, ऐसा जानना चाहिए। धर्मस्यचतुर्पकारमाह -

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