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260 : विवेकविलास
सुसंयमैर्विवेकाद्यैर कामोग्रतपोऽग्निना ।
संसारकारणं कर्म जरणीयं महात्मभिः ॥ 39 ॥
महापुरुषों को सुसंयम, विवेक और निष्काम तपस्या रूप अग्नि से संसार को बढ़ाने वाले कर्म की निर्जरा करनी चाहिए।
शरावसरञ्चनावज्जगत्स्वरूपमाह
शरावसम्पुटाधस्थाधोमुखैकशराववत् ।
पूर्ण चिन्त्यं जगद्रव्यैः स्थित्त्युत्पत्तिलयात्मभिः ॥ 40 ॥
सीधा सकोरा (कुल्लड़) नीचे और औंधा सकोरा ऊपर रखा हो तो वह शराव सम्पुट कहलाता है। उस शराव सम्पुट के नीचे एक औंधा सकोरा रखा होइसी आकार में विद्यमान यह जगत्, उत्पत्ति, स्थिति और विलीन होने वाले जीव, अजीव आदि व्यों से परिपूर्ण है, साधक को ऐसा चिन्तन करना चाहिए। सम्पूर्णेऽपि मनुष्यत्वे प्राप्ते जीवः श्रुतादिभिः ।
आसन्नसिद्धिकः कश्चिदुद्ध्यते तत्त्वनिश्चयात् ॥ 41 ॥
कोई एक ही आसन्न सिद्धि या जीव सम्पूर्ण इन्द्रिय वाले इस मनुष्य जन्म को पाकर श्रुत, गुरु आदि का योग मिलने पर तत्त्व - निश्चय करता हुआ बोधमय होता है। श्रेष्ठो धर्मस्तपः क्षान्ति मादवार्जवसूनृतैः ।
शौचाकिञ्चन्यकरुणा ब्रह्मत्यागैश्च सम्मतः ॥ 42 ॥
जिसमें 1. तपस्या, 2. क्षमा, 3. कोमलता, 4. सरलता, 5. सत्यभाषण, 6. पवित्रता, 7. परिग्रह का त्याग, 8. दया, 9. ब्रह्मचर्य और दान की प्रवृत्ति ये दस वस्तु हो वह धर्म श्रेष्ठ कहलाता है।
भावनीयोः शुभैर्ध्यानैर्भव्यैर्द्वादश भावनाः ।
एता हि भवनाशिन्यो भवन्ति भावनां किल ॥ 43 ॥
भव्य जीवों को अपने जीवन में शुभ ध्यान से बारह भावनाएँ रखनी चाहिए क्योंकि वे भव्यजीव संसार का नाश करने वाले हैं। गोदुग्धस्यार्कदुग्धस्य यद्वत्स्वादान्तरं महत् । धर्मस्याप्यन्तरं तद्वत्फलेऽमुष्यापरस्य च ॥ 44 ॥
जिस प्रकार गाय के दूध और मन्दार के दूध के स्वाद में अन्तर है वैसे ही उपर्युक्त धर्म में और अन्य धर्म की अवधारणा में भी अन्तर जानना चाहिए। उपसंहरन्नाह
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इत्यनेन विधिना करोति यः कर्म धर्ममयमिद्धवासनः ।
तस्य सूत्रयति मुक्तिकामिनीकण्ठकन्दलहठग्रहक्रियाम् ॥ 45 ॥