Book Title: Vivek Vilas
Author(s): Shreekrushna
Publisher: Aaryavart  Sanskruti Samsthan

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Page 261
________________ अथ धर्मोत्पत्तिप्रकरणं नामाख्यं दशमोल्लासः : 259 संसारनाटके जन्तुरुत्तमो मध्यमोऽधमः। नटवत्कर्मसंयोगान्नानारूपो भवत्यहो॥33॥ संसाररूप नाटक में जीव एक नट के समान कर्मयोग के प्रभाव से उत्तम, मध्यम और अधम प्रकार के वेष को धारण करता रहता है, यह दुःखद स्थिति है। एक एव ध्रुवं जन्तुर्जायते म्रियतेऽपि च। एक एव सुखं दुःखं भुण्क्ते चान्योऽस्ति नो सखा॥34॥ यह जीव अकेला ही है जो जन्म लेता है और सुख-दुःख भोगता है। अन्य कोई भी उसका सगा नहीं है। देहार्थबन्धुमित्रादि सर्वमन्यन्मनस्विनः। युज्यते नैव कुत्रापि शोकः कर्तुं विवेकिना॥35॥ विवेकी पुरुष देह, धन, बान्धव, मित्र आदि सब कुछ पराया समझते हैं। अतएव विवेकी पुरुष को देहादि के लिए शोक करना योग्य नहीं। रसासृङ्मांसमेदोऽस्थि मज्जशुक्रमये पुरे। नवस्त्रोतः परीते च शौचं नास्ति कदाचन ।। 36॥ यह शरीर रस, रक्त, मांस, मेद, अस्थि, मजा और वीर्य- इन सात धातुओं से बना हुआ है और नवद्वार से वेष्टित है। ऐसे शरीर में किसी भी काल में पवित्रता नहीं होती है। कषायैर्विषयैर्योगैः प्रमादैरङ्गिभिनवम्। रौद्रा नियमाज्ञत्वैश्चात्रकर्मप्रबद्धयते॥37॥ जीव इस लोक में कषाय, विषय, योग, प्रमाद, रौद्रध्यान, आर्तध्यान, विरति के अभाव से और अज्ञान से सर्वदा नए कर्मों का बन्धन करता रहता है। .. कर्मोत्पत्तिविधाताय संवराय नतोऽस्म्यहम्। यश्छिनत्ति शमास्त्रेण शुभाशुभमयं द्रुमम्॥38॥ नए कर्म की उत्पत्ति को रोकने वाले संवर को मैं नमस्कार करता हूँ क्योंकि यह संवर समता रूपेण शस्त्र" से शुभाशुभ कर्म का छेदन कर डालता है। ......................... ---- --- -- * औपपातिकसूत्र में आया है- अच्छे कर्म के फल अच्छा और बुरे कर्म का फल बुरा होता है सुचिण्णा कम्मा सुचिण्णफला भवन्ति । दुचिण्णा कम्मा दुचिण्णफला भवन्ति ।। (औपपातिक सूत्र) **गीता में भी अद्भुत, अनन्त संसार रूप वृक्ष को विरक्ति के शस्त्र से काटकर ऐसे स्थान की खोज का निर्देश दिया गया है जहाँ जाकर पुनः संसार में लौटना नहीं पड़े-न रूपमस्येह तथोपलभ्यते नान्तो न चादिर्न च सम्प्रतिष्ठा । अश्वत्थमेनं सुविरूढमूलमङ्गशस्त्रेण दृढेन छित्वा ॥ ततः पदं तत्परिमार्गितव्यं यस्मिन्गता न निर्वतन्ति भूयः । तमेव चाद्यं पुरुषं प्रपद्ये यतः प्रवृत्तिः प्रसृता पुराणी ।। (गीता 15, 3-4)

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