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कमणा।
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अथ जन्मचर्या नाम अष्टमोल्लास: : 247 रसायन पर प्रीति रखे और जो परीक्षण के नाम पर विष सेवन कर ले- ऐसे तीनों पुरुष अनर्थ के पात्र होते हैं।
परवश्यः स्वगुह्येक्ताद् भृत्यभीरुः कुकर्मणा। घातकः स्वस्य कोपेन पदं दुर्यशसाममी। 430॥
ऐसे व्यक्ति जो अपनी गुप्त बातें उगलकर पराधीन हो जाए; जो कुकर्म करके अपने सेवक का भय रखे और जो क्रोध से अपनी हानि करे- तीनों ही अपयश के पात्र होते हैं।
क्षणरागी गुणाभ्यासे दोषेषु रसिकोऽधिकम्। बहुहन्ताल्परक्षी च संपदामास्पदं नहि।। 431॥
जो व्यक्ति गुणाभ्यास के प्रति क्षणभर रुचि दर्शाए, जो दोषानुसन्धान में बहुत रुचि रखे और जो बहुत गंवाकर अल्पद्रव्य की रक्षा करे वह लक्ष्मी नहीं पाता है।
नगैषु नृपवन्मौनी सोत्साहो दुर्बलार्दने।
स्तब्धश्च बहुमानेन न भवेजनवल्लभः॥ 432॥ * मानसोल्लास में आया है कि राज्यकोश में विविध प्रकार के धनों के विवर्द्धन के निमित्त धातुवाद (रसायन सिद्धान्त) का प्रयोग किया जाता है। इसके लिए ताम्र से स्वर्ण और वङ्ग (राँगा) से रजत बनाने का साधन होता है- धातुवादप्रयोगैश्च विविधैवैर्धयेद् धनम्। ताण साधयेत् स्वर्ण रौप्यं वङ्गेन साधयेत्॥ (मानसोल्लास 2, 4 377) दत्तात्रेयतन्त्रम् में धातुवाद-रसायन की विधि प्राप्त होती है। एक विधि के अनुसार गोमूत्र, हरताल, गन्धक, मनशिल को लेकर सूखने तक खरल करे। इस विधि में लाल वर्ण की गाय का मूत्र और लाल वर्ण की गन्धक ले और 11 दिन तक पवित्रतापूर्वक उसकी घुटाई करे। बारहवें दिन गोला बनाकर लाल वस्त्र में लपेटे और उस पर चार अङ्गल मिट्टी का लेप कर सूखने के लिए रख दे। इसके बाद पाँच हाथ गहरा कुण्ड तैयार करें और उसमें पलाश की लकड़ी को जलाए व बीच में इस गोले को रख दे। जब आग ठण्डी हो जाए तब गोले को निकाले और परितृप्त ताम्र के ऊपर गोले की भस्म को डाले। यह क्रिया वन, निर्जन प्रदेश में या किसी शिवालय में करनी चाहिए। इससे धुंधुची के बराबर ताम्रपत्र उसी समय स्वर्ण हो जाता है। शुक्लपक्ष में चन्द्रमा को बली देखकर यह क्रिया करने का निर्देश है। इससे पूर्व त्र्यम्बकम् मन्त्र का 10 हजार बार जाप करना चाहिए। कार्य सिद्धि होने तक 11 विप्रों को भोजन करवाते रहे। रसायन को खरल करते समय मन्त्र का जाप भी करना चाहिए। यह मन्त्र दस हजार बार जपने से सिद्ध होता हैगोमूत्रं हरितालं च गन्धकं च मनश्शिलाम्। समं समं गृहीत्वा तु यावच्छुष्कं तु कारयेत् ॥ गोमूत्रं रक्तवर्णाया गन्धकं रक्तवर्णकम्। एकादशदिनं यावद्रक्ष्यं यत्नेन वै शुचि॥ गोलं कृत्वा द्वादशेऽह्नि रक्तवस्त्रेण वेष्टयेत्। चतुरङ्गुलमानेन मृदं लिप्त्वा विशोषयेत् ।। पञ्चहस्तप्रमाणेन भूमौ गतं तु कारयेत्। पलाशकाष्ठलोष्टैस्तु पूरयेद् द्रव्यमध्यगम् ॥ अग्निं दद्यात्प्रयत्नेन स्वाङ्गशीतं समुद्धरेत् । ताम्रपत्रे सुसन्तप्ते तद्भस्म तु प्रदापयेत् ॥ गुञ्जकं तत्क्षणात्स्वर्ण जायते ताम्रपत्रकम्। अरण्ये निर्जने देशे शिवालयसमीपतः । शुक्लपक्षे सुचन्द्रेऽह्नि प्रयोगं साधयेत्सुधीः । त्र्यम्बकेति च मन्त्रस्य जपं दशसहस्रकम्॥ प्रत्यहं कारयेद्विद्वान्भोजयेदुद्रसम्मितान्। यावत्सिद्धिर्न जायते तावदेतत्समाचरेत्॥
द्रव्यमईनमन्त्रः- 'ॐ नमो भगवते रुद्राय स्वर्णादीनामीशाय रसायनस्य सिद्धिं कुरु कुरु फट् • स्वाहा।' प्रतिदिनं मर्दनसमये अयुतजपात्सिद्धिः ॥ (दत्तात्रेयतन्त्र 13, 2-10)