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248 : विवेकविलास
ऐसा व्यक्ति जो विनम्र मनुष्य के साथ राजा की तरह मौन धारण करे, जो दुर्बल लोगों पर अत्याचारों में उत्साह दिखाए और जो बहुत मान मिलने से अहङ्कार से चूर हो जाए- ये तीनों जनप्रिय नहीं होते हैं।
दुःख दीनमुखोऽत्यन्तं सुखे दुर्गतिनिर्भयः। कुकर्मण्यपि निर्लजो बालकैरपि हस्यते॥433॥
जो मनुष्य दुःख आने पर दीन मुँह बनाकर बैठ रहे, जो सुखावस्था में दुर्गति का भय न रखे और जो कुकर्म करने में लजा नहीं रखें- ऐसे तीन पुरुषों की बालक भी हँसी उड़ाते हैं।
धर्तस्तत्यात्मनि भ्रान्तः की चापात्रपोषकः। स्वहितेष्वविमर्शी च क्षयं यात्येव बालिशः॥434॥
जो धूर्त लोगों की प्रशंसा करने से स्वयं भ्रमित हो जाता हो, कीर्ति के लिए कुपात्र को प्रोत्साहन देता हो और अपने हित का चिन्तन नहीं करता हो, ऐसे मूर्ख मनुष्य हानि ही उठाते हैं।
विद्वानस्मीति वाचालः सोद्यमोऽमीति चञ्चलः। शरोऽस्मीति च निःशङ्कः समज्यायां न राजते॥435॥
जो व्यक्ति स्वयं को 'मैं विद्वान हूँ' ऐसा समझकर बहुत प्रलाप करे, 'मैं बड़ा उद्यमी हूँ' ऐसा समझकर बहुत चालाकी प्रदर्शित करे और किसी का भय नहीं रखे, ऐसे व्यक्ति किसी समुदाय में शोभाजनक नहीं होते हैं।
धर्मद्रोहेण सौख्येच्छुरन्यायेन विवर्द्धिषुः। श्रेयः पाथेयमुक्तोऽन्ते नातिथिः सुगतेनरः॥436॥
जो व्यक्ति धर्म का द्रोह करके सुखैच्छा करे, स्वयं अन्याय कर उन्नति की आकांक्षा रखे और अन्तसमय आने पर पुण्यरूपेण पाथेय पास नहीं रखे, वह पुरुष सुगति को प्राप्त नहीं होता है।
विकृतः सम्पदां प्राप्त्या शंमन्यो मुखरत्वतः। दैवज्ञोक्त्या नृपत्वेच्छु(मद्भिर्न प्रशस्यते॥437॥
जो मनुष्य लक्ष्मी मिलने पर विकृत हो जाए, जो बड़बोलेपन से स्वयं को महा-पण्डित कहते हों और जो दैवज्ञ के कहने मात्र से राजपद की प्राप्ति का स्वप्न संजोने लगे, ऐसे लोगों की समझदार लोग प्रशंसा नहीं करते हैं।
क्लिष्टोक्त्यापि कविमन्यः स्वाधी प्राज्ञपर्षदि। व्याचष्टे चाश्रुतं शास्त्रं यस्तस्य मतये नमः॥438॥ जो व्यक्ति कोई भी न समझे जैसे क्लिष्ट वचन बोलकर अपने को कवि