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152 : विवेकविलास
क्रोधभीशोकमद्यस्त्री भारयानाध्वकर्मभिः । परिक्लान्तैरतीसार श्वासहिक्कदिरोगिभिः ॥ 253 ॥ वृद्धबालाबलक्षीणैः क्षुत्तृद्शूलादिविह्वलैः । अजीर्णिप्रमुखैः कार्यों दिवास्वापोऽपि कर्हिचित् ॥ 254 ॥ धातुसाम्यं वपुः पुष्टिस्तेषां निद्रागमाद्भवेत् । रसः स्निग्धो घनः लेष्मा मेदस्व्यह्नि शयीत न ॥ 255 ॥
क्रोध के कारण, भय, शोक, मद्यपान, स्त्रीसङ्ग, भारवाह, वाहन में बैठना और रास्ते पर गमन इत्यादि कारणों से, थके हुए, अतिसार, श्वास, हिचकी जैसे रोगों से पीड़ित; वृद्ध, बालक, दुर्बल, बीमारी आदि भोगने से क्षीणकाय, क्षुधा, तृषा शूल आदि से पीड़ित और अजीर्णादि रोगों से उपद्रव पाए हुए मनुष्यों को दिन में भी किसी भी समय हो जाना चाहिए क्योंकि उनके शरीर में विषम हुआ धातु ऐसा करने से सम होता है; शरीर को पुष्टि मिलती है, रस-धातु स्निग्ध होता है और शुद्ध कफ पुष्ट होता है किन्तु जिसके शरीर में मेद भरा हो, उस मनुष्य को दिन में कदापि नहीं सोना चाहिए। *
वातोपचयरौक्ष्याभ्यां
रजन्याश्वाल्पभावतः ।
दिवा स्वापः सुखो ग्रीष्मे सोऽन्यदा श्लेष्मपित्तकृत् ॥ 256 ॥
ग्रीष्म ऋतु में शरीर में वायु का सञ्चार होता है, हवा रूक्ष होती है और रात छोटी होती है। इन तीनों कारणों से उस ऋतु में दिन का सोना सुखकारक माना गया है किन्तु दूसरी ऋतु में ऐसा करने से कफ, पित्त का विकार उत्पन्न होता है । दिवा स्वापो निरन्नानामपि पाषाणपाचकः । रात्रिजागरकालार्थं भुक्तानामप्यसौ हितः ॥ 257 ॥
मनुष्य यदि कुछ भी खाए बिना दिन में सोता रहे, तो उसके पेट में कदापि पाषाण हो तो वह भी पच जाता है। रात को जगना हो तो दिन को भोजन के बाद भी सोये रहना हितकारक है।
* सुश्रुतसंहिताकार का मत है कि सभी ऋतुओं में दिवस शयन निषिद्ध है किन्तु ग्रीष्म ऋतु में दिन में शयन निषिद्ध नहीं है। यदि बालक, वृद्ध, स्त्रीसेवन से कृश, क्षतरोगी, क्षीण, मद्यप, यान-वाहनयात्रा अथवा परिश्रम करने से थके हुए, भोजन न करने वाले, मेद-स्वेद-कफ-रस- रक्त से क्षीण हुए और अजीर्ण रोगी मुहूर्तमात्र यानी 48 मिनट तक दिन में सो सकते हैं। इसके अतिरिक्त जिन लोगों ने रात्रि को जागरण किया हो, वे भी जागरण के आधे समय तक दिन में सो सकते हैंसर्वर्तुषु दिवास्वापः प्रतिषिद्धोऽन्यत्र ग्रीष्मात् । प्रतिषिद्धेष्वपि तु बालवृद्धस्त्रीकर्शितक्षतक्षीणमद्यनित्ययानवाहनाध्वकर्मपरिश्रान्तनामभुक्तवतां मेदः स्वेदकफरसरक्तक्षीणानामजीर्णिनां च मुहूर्तं दिवास्वपनमप्रतिषिद्धम् । रात्रावपि जागरितवतां जागरितकालादर्धमिष्यते दिवास्वपनम्। (सुश्रुतसंहिता शारीर 4, 38 )