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अथ जन्मचर्या नाम अष्टमोल्लासः : 235 कभी मेंढ़क, गधे और ऊँट की चाल नहीं चलना चाहिए किन्तु गज, हंस : और वृषभ की चाल चलना बहुत प्रशस्त कही गई है। गमनावसरे स्वरविचारं -
कार्याय चलितः स्थानाद्वहन्नाडीपदं पुरः। कर्वन वाञ्छितसिद्धीनां जायते भाजनं नरः॥ 358॥
व्यक्ति को किसी कार्यवशात् कहीं जाना हो तो नासिका में जिस ओर का पवन प्रवाह होता हो, उसी ओर का पाँव आगे रखकर गमन करने से फल सिद्धि होती है। न गन्तव्येकाकिनामाह -
एकाकिना न गन्तव्यं कस्याप्येकाकिनो गृहे। नैवोपरिपथेनापि विशेत्कस्यापि वेश्मनि ॥ 359॥
व्यक्ति को किसी के घर अकेले नहीं जाना चाहिए और किसी के भी घर में ऊपर चढ़कर या अनुचित रास्ते से नहीं जाना चाहिए। अन्यदप्याह -
रोगिवृद्धाद्विजान्धानां धेनुपूज्यक्षमाभुजाम्। गर्भिणीभारभुनानां दत्त्वा मार्गं व्रजेद्बुधः ।। 360।।
सुज्ञ मनुष्य का रोगी, वृद्ध, विप्र, अन्धा, गाय, पूज्यपुरुष, राजा, गर्भिणी और सिर पर भार के कारण झुके हुए लोगों को पहले मार्ग देकर फिर अपने मार्ग पर जाना चाहिए।
धान्यं पक्कमपक्वं च पूजार्ह मन्त्रमण्डलम्। न त्यक्तोद्वर्तनं लथ्यं स्नानाम्भोऽसृक्शवानि च ॥ 361॥
समझदार को कच्चा या पक्का अनाज, पूजने योग्य मन्त्र मण्डल, डाला हुआ विलेपनीय पदार्थ, नहाने का पानी, रक्त और शव को कभी उल्लङ्घन करके नहीं जाना चाहिए।
निष्ठयूतश्लेष्मविण्मूत्रज्वलद्वह्निभुजङ्गमम्। मनुष्यं सायुधं धीमान् कदाष्युल्लङ्घयेन च ॥ 362॥
ज्ञानी को कभी पड़े हुए थूक, कफ, विष्ठा, मूत्र, प्रज्वलित अग्नि, सर्प और आयुधधारी मनुष्य का उल्लङ्घन नहीं करना चाहिए।
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* शुक्र का मत है -चैत्यपूज्यध्वजाशस्तच्छायाभस्मतुषाशुचीन्॥ नाक्रामेच्छर्करालोष्टबलिनानभुवोऽपि च। (शुक्रनीति 3, 25-26) सुश्रुत का कहना है-न केशास्थितकण्टकाश्मतुषभस्मोत्करकपालाङ्गारामध्यस्नानबलिभूमिषु न विषमेन्द्रकीलचतुष्पथश्वभ्राणामुपरिष्टात्॥ (सूत्र 2, 33-34)