________________
238 : विवेकविलास
धूर्तावासे वने वेश्यामन्दिरे धर्मसद्मनि। ... सदा गोष्ठी न कर्तव्या प्राज्ञैरापानकेऽपि च ।। 374॥
जानकार पुरुष को धूर्त के घर में, वन में, गणिका के आवास में, धर्मस्थान में और पानी के पनघट पर नित्यप्रति कोई बात नहीं करना चाहिए। अन्यदप्याह
बद्धवध्याश्रये द्यूतस्थाने परिभवास्पदे। भाण्डागारे न गन्तव्यं परस्यान्तःपुरे न च ॥375॥
कारागार, वध्यस्थल, द्यूतस्थान, जहाँ अपना पराभव हो ऐसा स्थान, भण्डार, और दूसरे के अन्तःपुर में नहीं जाना चाहिए।
अमनोज्ञे श्मशाने च शून्यस्थाने चतुष्पथे। तुषशुष्कतृणाकीर्णे विषमावकरोषरे॥376॥ वृक्षाग्रे पर्वताने च नदीकूपतटे स्थितिम्। न कुर्याद्भस्मकेशेषु कपालङ्गारेऽपि वा। 377॥
मन न माने वैसे स्थान में, श्मशान में, शून्यस्थान में, चौराहे पर, तूष और सूखी हुई घास जहाँ बिछी हो ऐसे स्थान पर, आते-जाते कष्ट हों ऐसे स्थान में, कूड़ेकरकट में, क्षारीय भूमि में, वृक्ष पर, पर्वत शिखर पर, नदी या कूए के किनारे, भस्म, केश, कपाल और अङ्गारे जहाँ हों- ऐसे स्थान में नहीं रहना चाहिए। अथ विशेषोपदेशक्रम
मन्त्रस्थानमनाकाशमेकद्वारमसङ्कटम्। निःशङ्कादि च कुर्वीत दूरसंस्थे च यामिके ॥ 378॥
मन्त्रणा-स्थल वहाँ होना चाहिए जहाँ ऊपर का भाग खुला हुआ न हों, आने-जाने का द्वार एक ही हो, द्वारपाल की बैठक दूर हो, शङ्का जैसा कोई कारण नहीं हो और तङ्ग स्थान नहीं हो।
मन्त्रस्थाने बहुस्तम्भे कदाचिल्लीयतेऽपरः। सगवाक्षे प्रतिध्वानश्रुतिः सप्रतिभित्तिके ॥ 379॥
मन्त्रणा स्थल में जो बहुत स्तम्भ हों तो सम्भवतः वहाँ कोई छिपा रहेगा। यदि गवाक्ष, अवलोकनक या सूक्ष्म भित्ति हो तो सलाह करने वाले का शब्द, मन्तव्य सुन लिया जाता है।
शून्याधोभूमिके स्थाने गत्वा वा काननान्तरे। मन्त्रयेत्सम्मुखः स्वामी मन्त्रिभिः पञ्चभिस्त्रिभिः ।। 380 ।। राजा को शून्य, गुफा-गृह या वन-कानन में जाकर, पाँच या तीन मन्त्रियों के