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अथ जन्मचर्या नाम अष्टमोल्लासः : 193 दुष्टचित्त वाले गुरु के पास विद्या ग्रहण के लिए भेजना उचित नहीं है।
विद्ययापि तया किं नु या नास्तिक्यादिदूषिता। स्वर्णेनापि हि किं तेन कर्णच्छेदो भवेद्यतः॥ 114॥ ...
ऐसी विद्या से क्या प्रयोजन है जो कि नास्तिकत्व से भरी हुई हो, ऐसा स्वर्ण किस कार्य का है जिसके धारण करने से कान कट जाए।
आचार्यो मधुरैर्वाक्यैः साभिप्रायविलोकनैः। ... शिष्यं शिक्षेत निर्लजं न कुर्याद्वन्धताडनेः॥ 115॥
गुरु को सदैव मीठे वचनों से उसके मन का अभिप्राय प्रकट करने वाली दृष्टि से शिष्य को शिक्षण-प्रशिक्षण प्रदान करना चाहिए किन्तु निरन्तर बन्धन और प्रताड़ना कर के साथ उसे अपमानित नहीं करना चाहिए।
मस्तके हृदये वापि प्राज्ञश्छात्रं न ताडयेत्। अधोभागे शरीरस्य पुनः किञ्चन शिक्षयेत्॥ 116॥
सुज्ञ गुरु को शिष्य के मस्तक या हृदय पर प्रहार नहीं करना चाहिए अपितु कोई अवसर हो जाए तो शरीर के अधोभाग पर अल्प शिक्षा (ताड़ना) दी जा सकती
सुशिष्यलक्षणं
कृतज्ञाः शुचयः प्राज्ञाः कल्पा द्रोहविवर्जिताः। गुरुभिस्त्यक्तशाठ्याश्च पाठयाः शिष्या विवेकिभिः॥ 117॥
ऐसे शिष्य जो कृतज्ञ हों, पवित्र, बुद्धिशाली, अभ्यास करने में समर्थ और मत्सर एवं कपट रहित हों, उनको गुरु को बोधन देना चाहिए।
मधुराहारिणी प्रायो ब्रह्मव्रतविधायिना। दयादानादिशीलेन कौतुकालोकवर्जिना॥ 118॥ कपर्दप्रमुणक्रीडा विनोदपरिहारिणा। विनीतेन च शिष्येण पठता भाव्यमन्वहम्॥ 119॥
गुरु की सन्निधि में अध्ययनरत शिष्य को मधुराहारी होना चाहिए। ब्रह्मचर्य का पालन करने वाला, दया, दानादि की प्रवृत्ति रखना, कौतुक-क्रीड़ादि नहीं देखना, कौड़ी (वराटिक, कपर्द) आदि के अनुरञ्जनकारी खेल नहीं खेलना, अति विनोद-परिहास नहीं करना और गुरु के प्रति निरन्तर विनयशील रहना-ये गुण शिष्य में होने चाहिए।
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* गुरुगीता में आया है- ज्ञानहीनो गुरुस्त्याज्यो मिथ्यावादी विडम्बकः । स्वविश्रान्तिं न जानाति
परशान्ति करोति किम् ॥ (गुरुगीता 198 एवं सिद्धान्तसंग्रह 5, 38)