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अथ जन्मचर्या नाम अष्टमोल्लास : : 229
और अधम यदि अनुचित कथन करें तो भी अपनी ओर से उसे अनर्गल नहीं कहना
चाहिए।
अनुवादादरासूयान्योक्तिसम्भ्रमहेतुषु । विस्मयस्तुतिवीप्सासु पौनरुक्त्यं स्मृतौ न च ॥ 320 ॥
वचनों में अनुवाद, आदर, अनदेखी, अन्योक्ति, सम्भ्रम, हेतु, आश्चर्य, स्तुति, वीप्सा और स्मरण इनमें से यदि कोई कारण हो तो पुनरुक्ति दोष नहीं जानना चाहिए |
अन्यदपि
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न च प्रकाशयेद्गुह्यां दक्षः स्वस्य परस्य च ।
चेत्कर्तुं शक्यते मौनमिहामुत्र च तच्छुभम् ॥ 321 ॥
भले व्यक्ति को अपनी और पराई गुप्त चर्चा कभी प्रकट नहीं करनी चाहिए क्योंकि जो सम्मान रह सकें तो इहलोक और परलोक में प्रशस्त होता है । सदा मूकत्वमासेव्यं वाच्यमानेऽन्यमर्मणि ।
श्रुत्वा तथा स्वमर्माणि बाधिर्यं कार्यमुत्तमैः ॥ 322 ॥
जब कभी परनिन्दा होती हो, वहाँ ज्ञानी को हमेशा मौन साध लेना चाहिए और यदि आलोचनात्मक वचन सुन भी लिए हो तो बधिर हो जाना चाहिए अर्थात् सुना-अनसुना कर देना ही उचित है।
कान्नयेsपि यत्किञ्चिदात्मप्रत्ययवर्जितम् ।
एवमेतादिति स्पष्टं व नाच्यं चतुरेण तत् ॥ 323 ॥
चतुर व्यक्ति को यदि किसी विषय में सन्तुष्टि नहीं हो तो उस विषय में 'यह ऐसा ही है' इस तरह अपना निश्चय नहीं कहना चाहिए ।
परार्थस्वार्थराजार्थ कारकं धर्मसाधकम् ।
वाक्यं प्रियं हितं वाच्यं देशकालानुगं बुधैः ॥ 324 ॥
चतुर को मधुर, हितकारी, अपना पराया और राजा का कार्य सिद्ध हो तथा धर्म की साधना हो, ऐसा वचन देश-काल को ध्यान में रखकर कहना चाहिए । स्वामिनां स्वगुरुणां च नाधिक्षेप्यं वचो बुधैः ।
कदाचिदपि चैतेषां जल्पतां नान्तरा वदेत् ॥ 325 ॥
सज्जनों को अपने स्वामी और गुरु के वचन पर मतभेद नहीं बढ़ाना चाहिए । यदि स्वामी या गुरु बात करते हों तो बीच में किसी भी समय नहीं बोलना चाहिए । कार्यार्थ कथनोक्तिं
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