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230 : विवेकविलास
आरभ्यते नरैर्यच्चाकार्यं कारयितुं परैः ।
दृष्टान्तान्योक्तिभिर्वाच्यं तदग्रे पूर्वमेव तत् ॥ 326 ॥
जब भी किसी अन्य से कोई कार्य लेना हो तो पहले ही उस कार्य को किसी अन्योक्ति या दृष्टान्त से उसके सामने कह देना चाहिए।
यदि वान्येन केनापि तत्पूर्वं जल्पितं भवेत् ।
प्रमाणमेव तत्कार्यं स्वप्रयोजनसिद्धये ॥ 327 ॥
हर किसी काम में अपने वचन से मिलते दूसरे किसी का वचन हो, तो वह अपने कार्य की सिद्धि के लिए प्रमाण ही करना उचित है।
यस्य कार्यमशक्यं स्यात्तस्य प्रागेव कथ्यते । नैहिरेयाहिरां कार्यों वचोभिर्वितथैः परः ॥ 328 ॥
जिसका काम अपने से सम्भव न हो सके, तो उसे पहले ही अपनी अशक्तता कह देनी चाहिए। मिथ्या वचन कहकर व्यर्थ ही उसे धक्के नहीं देना चाहिए। वैभाष्यं नैव कस्यापि वक्तव्यं द्विषतां तु चेत् ।
उच्यते तदपि प्राज्ञैरन्योक्तिच्छलभङ्गिभिः ।। 329 ॥
कभी किसी को कटु नहीं कहें, सुज्ञ मनुष्य को शत्रु को टेढ़े वचन कहने हो तो भी अन्योक्ति से, किसी बहाने से या व्यंग्योक्ति से ही कहने चाहिए । शिक्षा तस्मै प्रदातव्या यो भवेत्तत्र यत्नवान् ।
गुरु साहसमेतद्धि कथ्यते यदपृच्छतः ॥ 330॥
जो सीख मानकर उसके अनुसरण में रुचिशील हो, उसी को परामर्श देना चाहिए। बिना पूछे किसी को कुछ कहना यह किसी साहस से कम नहीं है । कलहनिषेधं
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मातृपित्रातुराचार्या तिथिभर्तृतपोधनैः । वृद्धबालाबलावैद्यापत्यदायादकिङ्करैः ॥ 331 ॥ श्वशुराश्रितसम्बन्धि वयस्यैः सार्धमन्वहम् ।
वाग्विग्रहमकुर्वाणो विजयेत जगत्त्रयम् ॥ 332॥
जो व्यक्ति अपने जीवन में माता-पिता, रोगी, आचार्य, अतिथि, स्वामी, तपस्वी, वृद्ध, बालक, दुर्बल, वैद्य, अपने पुत्र, भाई-बन्धु, सेवक, ससुर, आश्रित, सम्बन्धी और मित्र के साथ निरन्तर कलह नहीं करता है, वह तीन लोक को जीत
ता है।
अथ लोक्यानालोक्य प्रक्रमाह