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अथ जन्मचर्या नाम अष्टमोल्लासः : 213 रसस्थं कुरुते कण्डूं रक्तस्थं बाह्यतापकृत्। मांसस्थं जनयेच्छर्दि मेदस्थं हन्ति लोचने। 228॥
विष रस धातु में हो तो खाज उत्पन्न करता है; रक्त में हो तो शरीर के बाहरी भाग में ताप उत्पन्न करता है; मांस में हो तो वमन और मेद में हो तो दोनों आँखों को हानि पहुंचाता है।
अस्थिस्थं मर्मपीडां च मजस्थं दाहमान्तरम्। शुक्रस्थमानयेन्मृत्युं विषं धातुक्रमादहेः ॥ 229॥
इसी प्रकार यदि अस्थि में विष हो तो मर्मस्थान पर पीड़ा करता है; मजा में हो तो शरीर में जलन करता है और शुक्र धातु में हो तो मृत्युदायक होता है। इस प्रकार धातु के अनुक्रम से सर्प के विष का परिणाम जानना चाहिए।
निराकर्त विषं शक्यं पूर्वे स्थानचतुष्टये। अतःपरमसाध्यं तु कष्टं कष्टतरं स्मृतम्॥ 230॥
उपर्युक्त स्थानों में पहले चार स्थानस्थ विष हो तो उसका निवारण हो सकता है और शेष स्थानस्थ विष हो तो क्रमशः कष्टसाध्य, अति कष्ट साध्य एवं असाध्य होता है। आग्न्येदीनां विषस्य लक्षणं -
आग्नेये स्याद्विषे तापो जडता वारुणेऽधिका। प्रलापो वायवीये तु त्रिविधं विषलक्षणम्॥ 231॥
यदि अग्नि विष हो तो ताप बहुत होता है; वरुण का हो तो अति जड़ता होती है; वायु का हो तो रोगी प्रलाप करता है। इस प्रकार से विष के तीन लक्षण कहे गए
निक्षिसे मारिचे चूर्णे दृशोर्यदि पयः क्षरेत्। तदा जीवति दष्टः सन्नन्यथा त न जीवति॥ 232॥
जिस व्यक्ति को सर्प ने काटा हो, यदि उसकी आँखों में उसी व्यक्ति के कान का मल चूर्ण की भाँति आँज दिया जाए और पानी टपके तो वह जीवित रहेगा, अन्यथा नहीं। पीयूषकलावर्णनमाह -
पादाङ्गुष्ठेऽथ तत्पृष्ठे गुल्फे जानुनि लिङ्गके। नाभौ हदि कुचे कण्ठे नासाहकश्रुतिषु भ्रुवोः॥ 133॥ शो मूर्द्धिन् क्रमात्तिष्ठेत्पीयूषस्य कलान्वहम्।। शुक्लप्रतिपदः पूर्वं कृष्णपक्षे विपर्ययात्।। 234॥