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अथ जन्मचर्या नाम अष्टमोल्लास: : 221
प्रमाणद्वितयं
पुनः ।
प्रत्यक्षमनुमानं च चतुःप्रस्थानिका बौद्धाः ख्याता वैभाषिकादयः ॥ 271 ॥
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बौद्धमत वाले प्रत्यक्ष और अनुमान - ये दो ही प्रमाण मानते हैं । वैभाषिक (आर्यसमितीय), सौत्रान्तिक, योगाचार और माध्यमिक ऐसे बौद्धों के चार भेद हैं। अर्थी ज्ञानान्वितो वैभाषिकेण बहु मन्यते ।
सौत्रान्तिकेन प्रत्यक्ष ग्राह्योऽर्थो न बहिर्मतः ॥ 272 ॥
वैभाषिक मान्यता वाले ज्ञान और अर्थ को स्वीकारते हैं। सौत्रान्तिक बाह्यवस्तु के इस विस्तार को प्रत्यक्ष नहीं मानते हैं ।
आचारसहिता बुद्धिर्योगाचारस्य सम्मता ।
केवलां संविदं स्वस्थां मन्यन्ते माध्यमाः पुनः ॥ 273 ॥
योगाचार मत वालों को आचार सहित बुद्धि सम्मत है अर्थात् वे साकार बुद्धि को ही परमतत्त्व स्वीकारते हैं। माध्यमिक मत वाले केवल अपने में ही रही हुई संविद् (ज्ञान) मानते हैं अर्थात् वे स्वाकार ज्ञान या निरालम्बन ज्ञान को ही परमतत्त्व मानते हैं ।
रागादिज्ञानसन्तान वासनोच्छेदसम्भवा ।
चतुर्णामपि बौद्धानां मुक्तिरेषा प्रकीर्तितां ॥ 274 ॥
रागादि के ज्ञान की सन्तान की वासना का मूलसहित उच्छेदन होने से जीवन से मुक्ति होती है। इस प्रकार चारों प्रकार के बौद्धों को सम्मत है। ** कृत्तिः कमण्डलुमण्ड्यं चीरं पूर्वाह्न भोजनम् ।
सङ्घी रक्ताम्बरत्वं च शिश्रिये बौद्धभिक्षुभिः ॥ 275 ॥
बौद्ध मत के भिक्षुओं के द्वारा चर्म का आसन, कमण्डलु, मुण्डन, चीर, दोपहर में जीमना, सङ्घ और रक्ताम्बर वस्तुएँ मानी हुई हैं।
अथ साङ्ख्यमतम्
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साङ्ख्यैर्देवः शिवः कैश्चिन्मतो नारायणः परैः । उभयोः सर्वमप्यन्यत्तत्त्वप्रभृतिकं समम् ॥ 276 ॥
* यह श्लोक षड्दर्शनसमुच्चय (बौद्ध. 9) से तुलनीय है— प्रमाणे द्वे च विज्ञेये तथा सौगतदर्शने । प्रत्यक्षमनुमानं च सम्यग्ज्ञानं द्विधा यतः ॥ इसी प्रकार कहा है- प्रत्यक्षानुमानं च प्रमाणं हि द्विलक्षणम् । प्रमेयं तत्प्रयोगार्थं न प्रमाणान्तरं भवेत् ॥ ( प्रमाणसमुच्चय 1, 2)
** श्लोक 271-274 सर्वदर्शनसंग्रह में पृष्ठ 46 पर भी आए हैं। षड्दर्शनसमुच्चय की टीका में कहा • अर्थो ज्ञानसमन्वितो मतिमता वैभाषिकेणोच्यते प्रत्यक्षो नहि बाह्यवस्तुविसरः सौत्रान्तिकेराश्रित: । योगाचारमतानुगैरभिमता साकारबुद्धिः परा मन्यते बत मध्यमाः कृतधियः स्वस्थां परां संविदम् ॥ (षड्दर्शन. पृष्ठ 75)