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अथ जन्मचर्या नाम अष्टमोल्लासः : 225
उत्क्षेपणापक्षेपणा कुञ्चनं च प्रसारणम् । गमनानीति कर्माणि पञ्चोक्तानि तदागमे ॥ 297 ॥
अब प्रत्येक के नामानुसार उनके कर्म का भेद कहा जा रहा है- 1. उत्क्षेपण (ऊपर फेंकना), 2. अपक्षेपण (नीचे फेंकना), 3. आकुञ्चन (खींच लेना), 4. प्रसारण (फैलाना) और 5. गमन - ये पाँच प्रकार के कर्म वैशेषिक मतानुसार कहे हैं।
सामान्यं भवति द्वेधा परं चैवापरं तथा ।
परमाणुषु वर्तन्ते विशेषा नित्यवृत्तयः ॥ 298 ॥
पर और अपर ये दो प्रकार सामान्य के कहे हैं। नित्य द्रव्य पर रहने वाले विशेष परमाणुओं में वे विद्यमान रहते, वर्तते हैं ।
भवेदयुतसिद्धानामाधाराधेयवर्तिनाम् ।
सम्बन्धः समावायाख्य इह प्रत्ययहेतुकः ॥ 299 ॥
अवयव और अवयवी, गुण और गुणी आदि अयुत सिद्ध वस्तु का पारस्परिक भावरूप सम्बन्ध वैशेषिक मतानुसार समवाय कहलाता है। समवाय से समवेत वस्तु का परिज्ञान होता है ।
विषयेन्द्रियबुद्धिनां वपुषः सुखदुःखयोः ।
अभावादात्मसंस्थानं मुक्तिनैयायिकैर्मता ॥ 300 ॥
नैयायिक मत वाले शब्द, स्पर्श आदि विषय, इन्द्रिय, बुद्धि, शरीर, सुख और दुःख का अत्यन्त अभाव होने पर एक आत्मा का रहना ही मुक्ति कहते हैं । चतुर्विंशतिवैशेषिकगुणान्तर्गुणा बुद्ध्यादयस्तदुच्छेदो मुक्तिर्वैशेषिका तु सा ॥ 301 ॥
नव ।
वैशेषिक मतानुसार पूर्वोक्त 24 गुणों में से 1. बुद्धि, 2. सुख, 3. दुःख, 4. इच्छा, 5. द्वेष, 6. प्रयत्न, 7. धर्म, 8. अधर्म और 9. संस्कार- इन नौ गुणों का मूल सहित उच्छेदन होने से मुक्ति होती है, ऐसा वैशेषिकों का मत है।
शैवादिभेदेन चतुर्धा भवन्ति
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आधारभस्मकौपीन
जटायज्ञोपवीतिनः ।
स्वस्वा( मन्त्रा! )चारादिभेदेन चतुर्धां स्युस्तपस्विनः ॥ 302 ॥ आधार (रहने के स्थान ), भस्म, कौपीन, जटा और यज्ञोपवीत- ये समस्त
चीजें धारण करने वाले तापस अपने-अपने आचार, मन्त्र भेद से चार प्रकार के हैं ।