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218 : विवेकविलास
अष्टकर्मक्षयान्मोक्षो ह्यन्तर्भावश्च कैश्चन। पुण्यस्य संवरे पापस्यास्त्रवे क्रियते पुनः॥ 253॥
उक्त तत्त्वान्तर्गत 1. जिसमें चेतना हो वह जीव, 2. जिसमें चेतना नहीं वह अजीव, 3. कर्म के शुभ पुद्गल (भूतद्रव्य) हो तो पुण्य, 4. कर्म के अशुभ पुद्गल हो वह पाप, 5. जीव का कर्मों के साथ सम्बन्ध होना आस्रव, 6. जीव का बन्धन करने वाले कर्मों को रोकना संवर, 7. कर्म का बन्ध होना बन्ध, 8. कर्म का क्षय करना निर्जरा और 9. आठों कर्मों को क्षय कर कर्मों से विमुक्ति को मोक्ष कहा जाता है। कतिपय आचार्य पुण्य और संवर तथा पाप और आस्रव-इन दोनों को पृथक् नहीं मानते हैं, इसी कारण उनके मत से उक्त नौ ही सात तत्त्व के रूप में परिगणित हैं।
लब्धानन्तचतुष्कस्य लोकाग्रस्थस्य चात्मनः। क्षीणाष्टकर्मणो मुक्तिख्यावृतिजिनोदिता॥ 254॥
जिनकी ज्ञान, दर्शन, वीर्य, और स्थिति- ये चारों वस्तुएँ अनन्त हैं, ऐसे और आठ कर्मों के क्षय से सिद्ध शिला पर रहे जीव का लौटकर इस संसार में नहीं आना ही मुक्ति है, ऐसा जिनदेव का मत है।
सरजोहरणा भैक्ष्यभुजो लुक्तञ्चितमूर्द्धजाः। श्वेताम्बराः क्षमाशीला निःसङ्गा जैनसाधवः ॥ 255॥
रजोहरण धारण करने वाले, भिक्षा पर अपना निर्वाह करने वाले, केशलोच करने वाले, कहीं पर ममत्व नहीं रखने वाले और क्षमाशील-श्वेताम्बरीय जैन सन्त की ऐसी सामान्य पहचान होती है।
लुञ्चिताः पिच्छिकाहस्ताः पाणिपात्रा दिगम्बराः। ऊर्ध्वाशनागृहे दातुर्द्वितीयाः स्युर्जिनर्षयः॥ 256॥
केशलोच करने वाले, मयूरपिच्छी का रजोहरण धारण करने वाले, निर्वस्त्र रहने वाले और भिक्षा देने वाले के ही घर पर करपात्री होकर वहीं खड़े-खड़े आहार करने वाले दिगम्बरीय जैन साधु होते हैं।
भुण्क्ते न केवली न स्त्रीमोक्षः प्राहुर्दिगम्बराः। एषामयं महान्भेदः सदा श्वेताम्बरैः सह ॥257॥
केवली भोजन नहीं करे; स्त्री मोक्षगांमी नहीं होती- ऐसा दिगम्बर कहते हैं। दिगम्बर-श्वेताम्बर में ऐसा सर्वदा भेद कहा गया है। अथ मैमांसकम् -
मीमांसका द्विधा कर्म ब्रह्ममीमांसकत्वतः। वेदान्ती मन्यते ब्रह्म कर्म भट्टप्रभाकरौ॥ 258॥ .