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अथ जन्मचर्या नाम अष्टमोल्लासः : 217
अथ जैनमतम् -
बलभोगोपभोगानामुमयोर्दानलाभयोः। नान्तरायस्तथा निद्राभीरज्ञानं जुगुप्सनम् ॥ 246॥ हासो रत्यरती रागद्वेषावविरतिः स्मरः। शोको मिथ्यात्वमेतेऽष्टादश दोषा न यस्य सः॥ 247॥ जिनो देवो गुरुः सम्यक्तत्वज्ञानोपदेशकः। ज्ञानदर्शनचारित्राण्यपर्वगस्य वर्तनी॥248॥
(इनमें सर्वप्रथम जैनमत के विषय में कहा जा रहा है। इसमें 1. वीर्यान्तराय, 2. भोगान्तराय, 3. उपभोगान्तराय, 4. दानान्तराय और 5. लाभान्तराय- ये पाँच अन्तराय; 6. निद्रा, 7. भय, 8. अज्ञान, 9. घृणा, 10. हास्य, 11. रति, 12. अरति, 13. राग, 14. द्वेष, 15. अविरति, 16. कामविकार, 17. शोक और 18. मिथ्यात्त्वये अठारह दोष जिनमें नहीं होते हैं, वे भगवान् श्रीजिनदेव कहलाते हैं। अच्छी प्रकार से तत्त्वज्ञान का उपदेश करें, वे गुरु कहलाते हैं और सम्यक् ज्ञान, सम्यक् दर्शन और सम्यक् चारित्र-इन तीनों का योग मोक्षमार्ग कहा जाता है।
स्याद्वादश्च प्रमाणे द्वे प्रत्यक्षं च परोक्षकम्। नित्यानित्यं जगत्सर्वं नव तत्त्वानि सप्त वा॥ 249॥
इसी प्रकार जैनमत में 'स्यादस्ति, स्यान्नास्ति' इत्यादि भङ्ग वाला स्याद्वाद और प्रत्यक्ष एवं परोक्ष- ये दो प्रमाण माने जाते हैं। सब जगत् द्रव्य से नित्य और . पर्याय से अनित्य हैं और नौ, व (अपेक्षागत) सात तत्त्व भी हैं।
जीवाजीवौ पुण्यपापे आस्त्रवः संवरोऽपि च। बन्धो निर्जरणं मुक्तिरेखां व्याख्याधुनोच्यते॥ 250॥
उक्त तत्वों में 1. जीव, 2. अजीव, 3. पुण्य, 4. पाप, 5. आस्रव, 6. संवर, 7. बन्ध, 8. निर्जरा और 9. मोक्ष- ये नौ तत्त्व हैं। अब इनके लक्षण कहता हूँ।
चेतनालक्षणो जीवः स्यादजीवस्तदन्यकः। सत्कर्मपुद्गलाः पुण्यं पापं तस्य विपर्ययः ॥ 251॥ आस्रवः कर्मसम्बन्धः कर्मरोधस्तु संवरः। कर्मणां बन्धनाद्वन्धो निर्जरा तद्वियोजनम् ॥ 252॥
* षड्दर्शनसमुच्चय में आया है- जिनेन्द्रो देवता तत्र रागद्वेषविवर्जितः । हतमोहमहामल्लः
केवलज्ञानदर्शनः ॥ सुरासुरेन्द्रसम्पूजयः सद्भूतार्थप्रकाशकः। कृत्स्त्रकर्मसंक्षयं कृत्वा सम्प्राप्तः परमं पदम्॥ (षड्दर्शन. जैन. 45-46)